Book Title: Rayanwal Kaha
Author(s): Chandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
Publisher: Bhagwatprasad Ranchoddas

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवान महावीर वर्धमान ने जिस भाषा में उपदेश दिया; महात्मा बुद्ध ने जिस भाषा में निर्वाण मार्ग का प्रकाशन किया, क्या उसकी उपेक्षा मधुररस में स्नात कवि-हृदयों को दुःखित नहीं करती? इस भाषा में अनेकान्तवाद की परीक्षा और मध्यमप्रतिपदा का महान् स्वर प्राप्त होता है । इस भाषा में अनेक काव्य, नाटक आदि ललित शास्त्र लिखे गए हैं । इसीलिए यह भाषा आज भी संख्यातीत रहस्यों का वहन करती है। ऐसी स्थिति में उस परम्परा का निर्वाह करना क्या युक्त नहीं है ? यद्यपि प्राकृत भाषा आज जन-भाषा नहीं है, तब भी वह अत्यन्त पठनीय है । जैसे अपने-अपने प्राचीन शास्त्र पढ़े जाते हैं, वैसे ही वर्तमान में विरचित ग्रन्थ अध्ययन योग्य क्यों नहीं होंगे ? अतः प्राकृत भाषा में ग्रन्थ रचना करना विचार-शून्य नहीं है । इस उद्देश्यपूर्ति के संदर्भ में मैं चन्दनमुनि का अभिनन्दन करता हूँ। सम्पूर्ण-साहित्य विधाओं में कथा-साहित्य का गौरवमय स्थान है। कुवलयमाला, उपमितिभवप्रपंच कथा आदि अनेक कथा-ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। उन्हीं की परम्परा में प्रस्तुत कथा-ग्रन्थ भी संबद्ध होगा। कथाकार चन्दनमूनि ने कथा का सुललित प्रबन्ध प्रस्तुत किया है । भाषा की दृष्टि से इसमें नएनए प्रयोग हैं । चन्दनमुनि ललित भाषा और नए-नए प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत कथा-प्रबन्ध मैं यत्र-तत्र प्राकृत व्याकरण के उदाहरण हगगोचर होते हैं । जिस प्रकार मृदु प्रकृति मन को हरती है, उसी प्रकार कथा में मृदु प्रयोगों का व्यवहरण मनोहर होता है । इसमें वाक्य-छोटे-छोटे सरल और सुन्दर हैं । उदाहरण के लिए चालीस पृष्ठ पर की ये पंक्तियाँ पठनीय हैं - "अइक्कतो गब्भकालो। सुहंसुहेण पसविणी जाया भाणुमई । सव्वलक्खणसंजुत्तं उप्पण्णं पुत्तरयणं । अब्बो ! सुण्णं घरं गिहमणिणा सोहिअं । अभूअपुव्वो उत्थारो वट्टिओ सयणाण-मणम्मि। धण्णेण सेट्ठिणा लद्धो वंसभाणू । दाणाइणीर-सित्तो फलिओ पुप्फिओ धम्मकप्परुक्खो । रिणभालिऊण अब्भग-मुहचंदं परमतुट्ठा भाणुमई । चिरपरिकप्पिओ दोहलो पूरिओ विहिणा। अणेगेहिं आणदिएहि वयंसेहिं गहिअं सेठित्तो पुण्णवत्तं ।” मैं मानता हूँ कि संस्कृत-प्रकृतिमय प्राकृतभाषाओं से जनता द्वारा-प्रयुक्त प्राकृत भाषा अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करती है। किन्तु उस भाषा का व्यवहरण For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 362