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विषय का उपसंहार करते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि कथाकार ने इस कथा ग्रन्थ को प्रस्तुत कर 'पडिसोयमेव अप्पा, दायन्वो होउकामेण''जो विकास करना चाहता है; उसे प्रतिस्रोत में बहना चाहिए' की आगम उक्ति को चरितार्थ किया है। वर्तमान में प्राकृत भाषा में नन्थ रचना करना प्रतिस्रोत में बहने से कम नहीं है।
__ महामना गुरुवर्य कालूगणी ने जो प्रयत्न किया था और महामना तुलसीगणी ने जिसको आगे बढ़ाया, उसी दिशा में यह कथा-प्रबन्ध महान् योगदायी सिद्ध होगा-यह कहा जा सकता है ।
इसलिए कथाकार मुनि साधुवाद के पात्र हैं। इस कथा प्रबंध का हिन्दी अनुवाद मुनि दुलहराज ने तथा संस्कृत छाया मुनि गुलाबचन्द ने प्रस्तुत को है । यह दोनों कार्य पूर्ण श्रम से सम्पादित हुए हैं। इनसे ग्रन्थ का गौरव बढ़ा है और संस्कृत तथा हिन्दी पाठकों के लिए पठन-पाठन को सरलता भी
मैं यह चिर अभिलाषा करता हूँ कि तेरापंथ परंपरा में इस प्रकार की ग्रन्थ-सम्पदा निरन्तर बढ़ती रहे।
वि० सं० २०२७, माघ कृष्ण ६
बोरावड (राजस्थान)
--मुनि नथमल
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