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न रहने के कारण आज वह उपलब्ध नहीं है। तो भी कथाकार मुनि ने यत्रतत्र देशी शब्दों के प्रयोग प्रस्तुत किए हैं। कहीं-कहीं देशी शब्दों के साथ संस्कृत सम शब्दों का संयोग कर्ण-अप्रिय-सा बन गया है। उदाहरण के लिए पृष्ठ २४ पर एक संदर्भ में 'तक्कुअ जहि'--ऐसा लिखा है, यहाँ 'तक्कुअ' देशी शब्द है; इसका अर्थ है- 'स्वजन' इसके स्थान पर यदि 'सयणजहि' (स्वजन जनैः) होता तो सुन्दर होता ।
यद्यपि हरिभद्र सूरी ने यह प्रयोग किया है । कथाकार ने प्राचीन ग्रन्थों की प्रयोग-पद्धति का अनुसरण कर ऐसे प्रयोग प्रस्तुत किए हैं, किन्तु आज भाषा प्रबन्धों की दिशा में बहुत परिवर्तन अपेक्षित है।
प्रस्तुत निबन्ध की कथावस्तु प्राचीन है ; परन्तु कथाकार ने उसे नए परिवेश में प्रस्तुत किया है, अतः वह नई प्रतीत होती है । इस कथा प्रबन्ध में स्थान-स्थान पर शाश्वत तथ्यों का संगान हुआ है। निम्न पंक्तियाँ पठनीय हैं
"अहो ! अलक्खिअं खु मोह-महारायस्स विडंबणं ! पुत्तपोत्तेहि परिवारिआ वि खिज्जति विरहिआ वि । दुरहिगमा किर मोह-मइराए तणूवी अण्णाणरेहा। सुहसंकप्पिए वि दुहं, दुहाइएवि सुहं अभिडइ । वत्थुत्तो पोग्गलिअं आसत्ति-पल्हत्थं किं सुहं किं दुहं ? इहगओ उत्थारो वि परिण पत्तो पच्चक्खं सोआलिखो। हंत ! तहवि कसाय-कलुसिओ जीवो णो जहातच्चं जिण-देसि धम्म सदहइ, पत्तिअइ, रोएइ य ।" (पृष्ठ १६)
जिस प्रकार मणि मुक्ताहार की शोभा बढ़ाता है, उसी प्रकार ग्रन्थ के अन्त में निबद्ध नीति-सूत्र ग्रन्थ के माहात्म्य को बढ़ाने वाले हैं । कथाकार ने अनेक स्थानों पर इन नीति-सूत्रों का प्रयोग किया है। पृष्ठ ३२ में प्रयुक्त वह नीति-वाक्य मननीय है-'आहार और व्यवहार में लज्जा नहीं रखनी चाहिए, यह नीति-सूत्र इस संस्कृत श्लोक का उपजीवी है
'आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् ।' रामचरित मानस के प्रणेता संत तुलसीदास ने अपने ग्रन्थ में अनेक संस्कृत श्लोकों का समावेश अत्यन्त कुशलता से किया है। इसलिए काव्य की दृष्टि से रामचरित मानस का मूल्य बढ़ जाता है । इस ग्रन्थ का प्रत्येक अंश प्राचीन अनुभूतियों के प्रयोगों का समावेश अभिव्यक्त करता है ।
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