Book Title: Ranakpur Mahatirth
Author(s): Anandji Kalyanji Pedhi
Publisher: Anandji Kalyanji Pedhi

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Page 5
________________ V 15 20 पेढी के द्वारा विशेष रूप से तैयार की गयी राणकपुर ओडियो गाईड़ के महत्वपूर्ण अंश (१) राणकपुर महातीर्थ में स्थित जैन श्वेताम्बर मन्दिर का निर्माण इ.स. १४९६ में हुआ। यह एक संगमरमर के पत्थरों में तराशी हुई कला-स्थापत्य एवं जैन धर्म की मानो गौरव गाथा है। (२) जैन धर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मो में से एक है। 'जिन' शब्द का अर्थ है जिसने स्वयं को जीत लिया है। राग और द्वेष से मुक्त आत्माओं को जिन कहा जाता है और उनके अनुयायी "जैन" कहलाते हैं। (३) मंदिरजी की भव्यता एवं सुंदरता से हर एक व्यक्ति मंत्रमुग्ध हो उठता है। देखिये छत की और ... पांच सिर और एक शरीरवाला राक्षस जो कि पांच बुराईयों का मिलाजुला प्रतीक है। ये बुराईया है... क्रोध, मोह, लालच, नशा और कामुकता। इस आकृति को 'कीचक' कहते हैं। सीढियों की उपरी हिस्से की छत पर लता जैसा नक्काशीदार एक गोल प्रतीक दिखायी पड़ेगा । इसे कहते है कल्पवल्ली। शायद यह राणकपुर के सुंदरतम शिल्प में से एक है। सामान्य निगाहों में यह एक सामान्य लता सी दिखायी देती है पर ध्यान से देखने पर यह पवित्र प्रतीक ॐ का आकार लेती है। (४) यह मंदिर मेवाड महाराणा के दरबार में मंत्रीपद पर स्थित धरणाशाह का स्वप्न-सर्जन है। उन्होंनें देखे हुए स्वप्न नलिनीगुल्म विमान की हूबहू प्रतिकृति से इस मंदिर को बनाने के लिए धरणाशाह ने अपने गुरुदेव आचार्य सोमसुन्दरसूरिजी के आशीर्वाद प्राप्त किये थे । (५) एक हाथ में लम्बी पट्टी और दूसरे हाथ में जल कलश लिये हुए खड़ी आकृति देपा शिल्पी की है | समीप के गाँव मुंडारा के रहनेवाले देपा शिल्पी ने ही राणकपुर के इस भव्य जिनालय का निर्माण धरणाशाह के स्वप्न को साकार करते हुए किया। (६) वि.सं. १४४६ में प्रारंभ हुए इस मंदिर का निर्माण पच्चीससों कारीगरों की मेहनत, लगन व धीरज का परिणाम है । १४४४ खंभों की विशेषता लिए यह मंदिर ४८ हजार वर्ग फीट की जगह में सोनाणा और सेवाड़ी के पत्थरों से निर्मित है इस मंदिर की बुनियाद - नींव १० मीटर जितनी गहरी रखी गयी थी। (७) समूचा यह मंदिर चतुर्मुख के सिद्धांत पर आधारित है और इसीलिए चारों दिशा में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की एक सी चार प्रतिमाए बिराजमान की गयी है। (८) एक शिल्पकृति में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जो कि आदिनाथ के नाम से भी जाने जाते है... उनकी माता मरुदेवी हाथी के औहदे पर आरुढ होकर अपने बेटे के दर्शन के लिए जाती दिखायी देती है। (९) जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। जिनमें प्रथम ऋषभदेव एवं अंतिम चौबीसवें महावीर स्वामी है। प्रत्येक तीर्थंकर की पहचान के लिए अलग अलग लांछन अथवा चिह्न की अवधारणा है .... जैसे कि भगवान ऋषभदेव का लांछन है वृषभ और भगवान महावीर का लांछन है सिंह । तीर्थंकर आदिनाथ पहले तीर्थंकर, प्रथम राजा, प्रथम मुनि थे। उन्होंनें सर्वप्रथम मानवीय संस्कृति की स्थापना की । पारिवारिक व्यवस्था, राज्य- अनुशासन जैसे सिद्धांत उन्होंनें प्रस्थापित किये। (१०) रंगमंडप - मुख्य हॉल के तुरंत बाद का विस्तार गर्भगृह के रूप में जाना जाता है। इसका अर्थ है सृजन केन्द्र ! यह एक पवित्र जगह है। यहाँ पर चारों और भव्य तोरण मौजूद है। सजावटी

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