Book Title: Ranakpur Mahatirth
Author(s): Anandji Kalyanji Pedhi
Publisher: Anandji Kalyanji Pedhi

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Page 13
________________ G 110 संगमरमर में तराशी कला का श्रेष्ठ सर्जन आबु के मन्दिर अपनी सूक्ष्म नक्कासी के लिये प्रख्यात हैं, तो राणकपुर के मन्दिर की नक्काशी भी कुछ कम नहीं हैं; फिर भी प्रेक्षक का जो विशेष ध्यान आकर्षित करती है, वह है इस मन्दिर की प्रमाणोपेत विशालता । इसी से तो जनसमूह में "आबू की कोरणी और राणकपुर की मांडनी" यह बात प्रसिद्ध हुई है / काल व प्रकृतिनिर्मित क्षीणता एवं विदेशियों के आक्रमण आदि के कारण, समय के बीतने पर, यह तीर्थ जीर्ण हो गया; वहाँ पहुँचने का मार्ग वीरान व दुर्गम हो गया; शेर जैसे हिंसक पशुओं का भय बढ़ गया; और वैसी परिस्थिति के निर्माण हो जाने से, इस तीर्थ में पहुँचना मुश्किल हो गया; फलतः इस तीर्थ के यात्रियों की संख्या बहुत कम हो गई, और तीर्थ एकदम उपेक्षित हो गया। सौभाग्य से वि.सं. १९५३ (सन् १८९६) में, सादड़ी के श्रीसंघ ने यह तीर्थ सेठ आणंदजी कल्याणजी की पेढ़ी को सुपुर्द कर दिया। यात्रिकगण इस तीर्थ को यात्रा के लिये बिना चिन्ता- भय के जा सके इसके लिये आवश्यक प्रबंधकिये। तत्पश्चात पेढ़ी ने इस तीर्थ का संपूर्ण जीर्णोद्धार करवाने का निश्चय किया, और शीघ्र ही जीर्णोद्धार का कार्य शुरु करवाया। जीर्णोद्धार का कार्य वि.सं. १९९० से २००१ तक ग्यारह साल पर्यंत चलता रहा। यह कार्य इतना उच्च कोटि का व आदर्श हुआ कि विश्वविश्रुत स्थपतियों ने भी उसकी खुले मन से तारीफ की। जीर्णोद्धार के द्वारा एकदम नूतन रूप धारण करनेवाले इस मन्दिर की पुन: प्रतिष्ठा वि.स. २००९ में करवाई गई । इसके बाद तीर्थ मे यात्रिक सुविधा से रुक सकें इस हेतु से नई-नई धर्मशालायें बनवाई गई। जहाँ पुराने ढंग की सिर्फ एक ही धर्मशाला थी, वहा आज अन्य बहुत सी धर्मशालायें बनी, जिनमें से दो तो आधुनिक सुविधाओं से संपन्न है। इसके कारण, जैसे जैसे समय बीतता जाता है वैसे वैसे, इस तीर्थ की ख्याति, देश-विदेश में बढ़ती जाती है, और इस तीर्थ के दर्शनार्थ आनेवाले देश-विदेश के जैन- जैनेत्तर

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