Book Title: Rajasthani Digambar Jain Gadyakar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................ प्रवचनसार के अतिरिक्त इन्होंने पंचास्तिकाय संग्रह, नयचक, गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि पर भी वचनिकाएं लिखी हैं।' इसकी भाषा-शैली के सम्बन्ध में डॉ. गौतम लिखते हैं : "वाक्य सीधे और सुग्राह्य हैं । जो-सो, विष, करि इत्यादि पुराने शब्द इस वचनिका में भी हैं । गद्य में शैथिल्य और पण्डिताऊपन भी है।" इनकी भाषा एवं गद्य का नमूना इस प्रकार है : "धर्मद्रव्य सदा अविनासी टंकोत्कीर्ण वस्तु है । यद्यपि अपण अगुरलघु गुणनि करि षट्गुणी हानि वृद्धि रूप परिणवै है परिणाम करि उत्पाद व्यय संयुक्त है तथापि अपने ध्रौव्य स्वरूप सो चलना नाही । द्रव्य तिसही का नाम है, जो उपजै विनसै थिर रहे। बनारसीदास-महाकवि बनारसीदास यद्यपि मुख्य रूप में कवि (पद्यकार) हैं तथापि उनकी दो लघु कृतियाँ गद्य में भी प्राप्त होती हैं, वे हैं 'परमार्थ वचनिका' और 'निमित्त-उपादान चिट्ठी'। साहित्यिक महत्त्व की अपेक्षा हिन्दी भाषा के विकास की दृष्टि से इनका ऐतिहासिक महत्व है। इनमें कवि ने अत्यन्त सुलझी हुई व्याख्या प्रधान भाषा का प्रयोग किया है। उनके गद्य का नमूना इस प्रकार है : "मिथ्यादृष्टि जीव अपनी स्वरूप नहीं जानतो तातै पर स्वरूप विषमगन होइ करिकार्य मानतु है, ता कार्य करतौ छतो अशुद्ध व्यवहारी कहिये । सम्यग्दृष्टि अपनी स्वरूप परोक्ष प्रमाण करि अनुभवत है । परसत्ता पर स्वरूप सौं अपनी कार्य नाहीं मानतोसतो जोगद्वारकरि अपने स्वरूप को ध्यान विचाररूप किया करतु है ता कार्य करतो मिश्र व्यवहारी कहिए। केवलज्ञानी यथाख्यात चारित्र के बल करि शुद्धात्म स्वरूप को रमनशील है तातै शुद्ध व्यवहारी कहिये, जोगारूढ़ अवस्था विद्यमान है तातै व्यवहारी नाम कहिए । शुद्ध व्यवहार की सरहद त्रयोदशम गुणस्थानक सौ लेई करि चतुर्दशम गुणस्थान पर्यन्त जाननी । असिद्धत्व परिगमनत्वात् व्यवहारः।" "इन कान को व्यारों कहां ताई लिखिए, कहां तांई कहिये । वचनातीत, इन्द्रियातीत, ज्ञानातीत ताते यह विचार बहुत कहा लिखहिं । जो ग्याता होइगो सो थोरो ही लिख्यो बहुत करि समुझेगो, जो अज्ञानी होइगो सो यह चिट्ठी सुनगो सही परन्तु समझेगो नहीं । यह वचनिका यथा का यथा सुमति प्रवीन केवली वचनानुसारी है। जो याहि सुनगो, समुझेगो, सरदहैगो, ताहि कल्याणकारी है भाग्य प्रमाण । महाकवि बनारसीदास का स्थान हिन्दी साहित्य के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ये महाकवि तुलसीदास वे समकालीन थे और इनका प्रसिद्ध काव्य 'नाटक समयसार' तत्कालीन धार्मिक समाज में तुलसीदास के रामचरितमानस के समान ही लोकप्रिय था। उनके छन्दों को लोग रामायण की चौपाइयों के समान ही गुनगुनाया करते थे। आज भी जैन समाज में 'नाटक समयसार' अत्यन्त लोकप्रिय रचना के रूप में स्थान पाये हुए हैं। आपके द्वारा लिखा गया 'अर्द्धकथानक' हिन्दी-आत्मकथा साहित्य की सर्वप्रथम रचना है जिसमें कवि का आरम्भ से ५५ वर्ष तक का जीवन दर्पण की भाँति प्रतिबिम्बित है। आत्मकथा साहित्य की प्रथमकृति होने पर भी प्रौढ़ता को लिए हुए है। आपकी फुटकर रचनाएँ 'बनारसी विलास' में संकलित हैं। 'नाममाला' नामक पद्यबद्ध एक कोश ग्रन्थ भी है। आपका जीवन अनेक उतार-चढ़ावों को लिए हुए है। आपका जन्म विक्रम सं० १६४३, माघ शुक्ला, ११ रविवार के दिन जौनपुर में श्रीमाल कुलोत्पन्न लाला खरगसेन जी के यहाँ हुआ था। १. हिन्दी गद्य का विकास : डॉ. प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्यनगर, कानपुर-३, पृ० १७४ २. उपरोक्त ३. वही, पृ० १७४-७५ ४. अर्द्ध कथानक : बनारसीदास, संशोधित साहित्य माला, ठाकुर द्वार, बम्बई, भूमिका, पृ० ७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14