Book Title: Rajasthani Digambar Jain Gadyakar Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार 0 डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल, टोडरमल स्मारक भवन, ए-४, बापूनगर, जयपुर-४ (राज.) विषय के विवेचन और गूढ़ भावों की स्पष्ट एवं बोधगम्य अभिव्यक्ति के लिये पद्य की तुलना में गद्य अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी माध्यम है। प्राचीन काल में पद्य का महत्त्व कितना ही क्यों न हो, किन्तु आधुनिक जीवन के लिये गद्य अपरिहार्य है, उसका क्षेत्र अपरिमित है । पद्य के समान वह छन्दों की सीमा में बंधा नहीं रहता, वह निर्बन्ध होता है, अतः अभिव्यक्ति में अपूर्णता नहीं रह पाती । गद्य की इसी विशेषता के कारण आज का पद्य भी छन्द की सीमा से मुक्त होता जा रहा है, गद्यात्मक होता जा रहा है । पद्य की अपेक्षा गद्य सहज एवं सरल होता है। गद्य में भर्ती के शब्दों की आवश्यकता नहीं होती और न ही शब्दों को तोड़ना-मरोड़ना पड़ता है, अतः भाषा का परिमार्जन सहज हो जाता है। एक ही लेखक का गद्य उसके पद्य की अपेक्षा अधिक परिमाजित होता है। पद्य में भाषा की तोड़-मोड़ बहुत अधिक होती है। लय और छन्द के अनुरोध के कारण पद्य में यह दोष एक तरह से क्षम्य होता है किन्तु गद्य में ऐसी कोई सुविधा प्राप्त नहीं होती। यही कारण है कि गद्य को कवियों की कसौटी कहा गया है-"गद्य कवीनां निकषं वदन्ति" । हिन्दी के अन्तर्गत सामान्यत: पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी, बिहारी तथा पहाड़ी भाषाओं और इनकी बोलियों की गणना की जाती है। इस प्रकार इनमें से किसी भी बोली या भाषा में लिखा गया गद्य 'हिन्दी गद्य' कहलायेगा। प्रकृत में हिन्दी गद्य-साहित्य के अन्तर्गत राजस्थानी प्रतिनिधि दिगम्बर जैन गद्यकारों के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का संक्षिप्त परिचय देना अभीष्ट है। मध्यकाल में आते-आते संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश सामान्यजन की समझ के बाहर हो चुकी थी और हिन्दी पूर्णत: जनभाषा बन चुकी थी। जैन साहित्यकार सदा ही जनभाषा में अपने विचार जन-जन तक पहुंचाते रहे हैं, यही कारण है कि उन्होंने सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ से ही संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों की हिन्दी वचनिकाएं लिखना आरम्भ कर दिया था। जैन हिन्दी साहित्य का निर्माण केन्द्र प्रधानत: जयपुर, आगरा और दिल्ली एवं इनके आस-पास का प्रदेश रहा है । अत: जैन साहित्यकारों द्वारा लिखा गया साहित्य राजस्थानी और ब्रजभाषा दोनों में पाया जाता है। कहीं-कहीं तो दोनों भाषाएँ इतनी एकमेक होकर आई है कि उनके भेद करना संभव नहीं है। महान पण्डित टोडरमल और दौलतराम कासलीवाल का गद्य इसका स्पष्ट प्रमाण है। डा. गौतम लिखते हैं-"जयपुर के दिगम्बर जैन लेखकों ने संस्कृत-प्राकृत में लिखित अपने बहुत से धर्मग्रन्थों का हिन्दी-गद्यानुवाद किया है। उत्तर प्रदेश के भी दिगम्बर जैनों ने अपने संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों के अनुवाद का कार्य किया है"।' १. हिन्दी गद्य का विकास : डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्य नगर, कानपुर-३, पृष्ठ २१०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 ... 14