Book Title: Rajasthani Digambar Jain Gadyakar Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 6
________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड मेरे और मैं इनका झूठ ही ऐसे जड़न के सेवन से सुख मान। अपनी शिवनगरी का राज्य भूल्या, जो श्री गुरु के कहे शिवपुरी को संभालै, तो वहाँ का आप चेतन राजा अविनाशी राज्य करै।' महापंडित टोडरमल-डा० गौतम के शब्दों में "जैन हिन्दी गद्यकारों में टोडरमल जी का स्थान बहुत ऊंचा है । उन्होंने टीकाओं और स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में दोनों प्रकार से गद्य निर्माण का विराट उद्योग किया है। टोडरमलजी की रचनाओं के सूक्ष्मानुशीलन से पता चलता है कि वे अध्यात्म और जैनधर्म के ही वेत्ता न थे अपितु व्याकरण, दर्शन, साहित्य और सिद्धान्त के ज्ञाता थे । भाषा पर भी इनका अच्छा अधिकार था" ईसवी की अठारहवीं सदी के अन्तिम दिनों में राजस्थान का गुलाबी नगर जयपुर जैनियों की काशी बन रहा था। आचार्यकल्प पण्डित टोडरनलजी की अगाध विद्वत्ता और प्रतिभा से प्रभाबित होकर सम्पूर्ण भारत का तत्वजिज्ञासु समाज जयपुर की ओर चातक दृष्टि से निहारता था। भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में संचालित तत्व-गोष्ठियों और आध्यात्मिक मण्डलियों में चचित गूढ़तम शंकाएँ समाधानार्थ जयपुर भेजी जाती थीं और जयपुर से पण्डित जी द्वारा समाधान पाकर तत्व जिज्ञासु समाज अपने को कृतार्थ मानता था। साधर्मी भाई व० रायमल ने अपनी 'जीवनपत्रिका' में तत्कालीन जयपुर की धार्मिक स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है "तहाँ निरन्तर हजारों पुरुष स्त्री देवलोक की सी नाई चैत्यालै आय महापुण्य उपारज, दीर्घ काल का संचया पाप ताका क्षय करै । सौ-पचास भाई पूजा करने वारे पाईए, सौ पचास भाषा शास्त्र बांचने वारे पाईए, दस बीस संस्कृत शास्त्र वांचने वारे, सौ पचास जने चरचा करने वारे पाईए और नित्यान का सभा के शास्त्र वांचने का व्याख्यान विष पांच से सात से पुरुष, तीन च्यारि से स्त्रीजन, सब मिली हजार बारा से पुरुष स्त्री शास्त्र का श्रवण करै बीस तीस बायां शास्त्राभ्यास करै, देश देश का प्रश्न इहां आवै तिना समाधान होय उहां पहुंचे, इत्यादि अद्भुत महिमा चतुर्थकाल या नग्र विष, जिनधर्म की प्रवर्ति पाईए"। यद्यपि सरस्वती के वरद पुत्र का जीवन आध्यात्मिक साधनाओं से ओत-प्रोत है, तथापि साहित्यिक व सामाजिक क्षेत्र में भी उनका प्रदेय कम नहीं है । आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल जी उन दार्शनिक साहित्यकारों एवं क्रान्तिकारियों में से हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में आई हुई विकृतियों का सार्थक व समर्थ खण्डन ही नहीं किया वरन् उन्हें जड़ से उखाड़ फेंका। उन्होंने तत्कालीन प्रचलित साहित्य भाषा ब्रज में दार्शनिक विषयों का विवेचक ऐसा गद्य प्रस्तुत किया जो उनके पूर्व विरल है। पण्डितजी का समय ईसवी की अठारहवीं शती का मध्यकाल है। वह संक्रान्तिकालीन युग था। उस समय राजनीति में अस्थिरता, सम्प्रदायों में तनाव, साहित्य में शृंगार, धर्म में रूढ़िवाद, आर्थिक जीवन में विषमता एवं सामाजिक जीवन में आडम्बर--ये सब आपनी चरम सीमा पर थे। उन सबसे पण्डितजी को संघर्ष करना था, जो उन्होंने डटकर किया और प्राणों की बाजी लगाकर किया। पण्डित टोडरमलजी गम्भीर प्रकृति के आध्यात्मिक महापुरुष थे। वे स्वभाव से सरल, संसार से उदास, धन के धनी, निरभिमानी, विवेकी, अध्ययनशील, प्रतिभावान, बाह्याडम्बर विरोधी, दृढ़ श्रद्धानी, क्रान्तिकारी, सिद्धान्तों की कीमत पर कभी न झुकने वाले, आत्मानुभवी, लोकप्रिय, प्रवचनकार, सिद्धान्त ग्रन्थों के सफल टीकाकार एवं परोपकारी महामानव थे। - १. हिन्दी साहित्य, द्वि० ख०, भारतीय हिन्दी परिषद् प्रयाग, पृ० ४६५ २. हिन्दी गद्य का विकास : डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्यनगर, कानपुर, पृ० १८८ पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व, परिशिष्ट, प्रकाशक : टोडरमल (पंडित) स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर-४ (राजस्थान) 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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