Book Title: Rajasthani Digambar Jain Gadyakar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ Jain Education International ५४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड राजस्थान में गद्य लेखन की परम्परा अपभ्रंश काल से लेकर आज तक अखण्ड रूप से चली आ रही है । राजस्थानी गद्य साहित्य के सम्बन्ध में राजस्थानी साहित्य के विशिष्ट विद्वान श्री उदयसिंह भटनागर के निम्नलिखित विचार द्रष्टव्य हैं : "राजस्थानी साहित्य की विशेषता यह है कि जहाँ हिन्दी साहित्य में गद्य का प्राचीन रूप नहीं के बराबर 'है, वहाँ राजस्थानी में गद्य साहित्य मध्यकाल से ही पूर्ण विकसित रूप में मिलता है। इस गद्य का कब आरम्भ हुआ होगा, यह निश्चित रूप से कहने को अभी कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है, पर यह तो स्पष्ट है कि राजस्थानी "कहानी" तथा "ख्यात" लिखने की प्रवृत्ति बहुत प्राचीन है। उपलब्ध साहित्य और पद्य दोनों में साथ-साथ लिखी जाने लगी थी। राजस्थानी का व्यवस्थित १५०० से पूर्व का नहीं मिलता"।" साहित्यकारों में "बात" "वार्ता" या इस बात का द्योतक है कि बात गद्य रूप में विकसित गद्य साहित्य वि०सं० इससे यह स्पष्ट है कि गद्य साहित्य के इतिहास में उसके द्वारम्भकाल से ही दिगम्बर जैन गद्यकारों का उसके विकास और परिमार्जन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है । इस सम्बन्ध में डा० प्रेमप्रकाश गौतम के विचार द्रष्टव्य हैं : "वस्तुतः प्राचीन राजस्थानी गद्य के निर्माण, रक्षण और विकास में जैन समाज का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । जैन लेखकों ने अपने धार्मिक विचारों को जनता तक पहुँचाने और अपने प्राचीन ( प्राकृत और संस्कृत में लिखित ) धर्मग्रन्थों की व्याख्या के लिये लोक भाषा का सहारा लिया। मौलिक गद्य का भी निर्माण इन लोगों ने किया" । " राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में आज भी अनेक महत्त्वपूर्ण गद्यग्रन्थ शोधार्थियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस दिशा में शोध-खोज की महती आवश्यकता है और लगन से की गई मोध साहित्य इतिहास बदल देने वाला परिणाम ला सकती है। यद्यपि दिगम्बर जैन गद्यकारों की अनेक टयूट रचनाएँ १५वीं और १६वीं शती में लिखी गई, तथापि सर्वप्रथम प्रौढ़ रखना पाण्डे राजमल्लजी की 'समयसारकलन' पर लिखी गई 'बालबोधिनी टीका' प्राप्त होती है। पाण्डे राजमल्लजी - राजस्थान के जिन प्रमुख विद्वानों ने आत्म-साधना के अनुरूप साहित्य आराधना को अपना जीवन अर्पित किया है उनमें पाण्डे राजमल्लजी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनका समय सोलहवीं शती ईसवी का उत्तरार्ध है । ये जैन दर्शन, सिद्धान्त और अध्यात्म के तो पारमामी विद्वान थे ही, इनका संस्कृत भाषा पर भी पूर्ण अधिकार था । संस्कृत भाषा में लिखे गये इनके ग्रन्थों से उनके भाषा एवं विषयगत ज्ञान की प्रौढ़ता ज्ञात होती है। एक ओर 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड" और "पंचाध्यायी" जैसे गम्भीर तात्त्विक विवेचन के भरे ग्रन्थराज आपकी लौह लेखनी से प्रसूत हुए है, वहाँ दूसरी ओर "जम्बूस्वामी चरित्र" ( ई० सन् १५७६ ) जैसे कथाग्रन्थ एवं “लाटी संहिता" ( सन् १५८४) जैसे आचार ग्रन्थ भी आपने लिखे हैं। एक 'छन्दोविद्या' नामक पिंगल ग्रन्थ भी आपने लिखा है । उक्त कृतियां सभी परिमार्जित संस्कृत भाषा में है, अतः उनका विस्तृत विवेचन वहाँ उपयुक्त न होगा राजस्थानी (हिन्दी) गद्य में लिखित उनका एकमात्र उपलब्ध ग्रन्थ है 'समयसारकलश' की "बालबोधिनी टीका" । कहाकवि बनारसीदास ने 'नाटक समयसार' की प्रशस्ति में आपको आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थराज 'समयसार ' का मर्मज्ञ घोषित किया है। १. हिन्दी साहित्य द्वितीय खण्ड, भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग ०५१६. २. हिन्दी गद्य का विकास, डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्यनगर, कानपुर, पृ० १२२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14