Book Title: Rajasthan ke Kavi Thukarsi
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 4
________________ एक आदमी को बुलाकर एक झूठा लेख लिख दिया. इस तरह कृपण विचार कर ही रहा था कि कि तेरे जेठे भाई के घर पुत्र हुआ है, अतः तुझे बुलाया जीभ थक गई, वह बोलने में असमर्थ हो गया, और है । यद्यपि पत्नी पति के इस प्रपंच को जानती थी, वह इस संसार से विदा हो गया और कुगति में गया । किन्तु फिर भी वह उस पुरुष के साथ पीहर चली पश्चात् पत्नि आदि ने उस संचित द्रव्य को दान गई। धर्मादि कार्यों में लगाया । कवि की दूसरी कृति 'पारसनाथ श्रवण सत्ताइसी' जब संघ यात्रा से लौट कर आया, तब ठौर है, जिसमें जैनियों के तेवीसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का ठौर ज्योंनारें की गई, महोत्सव किए गये और जीवन-परिचय और स्तवन दिया हुआ है । रचना में मांगनेवालों को दान दिया गया, अनेक बाजे बजे, और लोगों ने असंख्य धन कम या। जब इस बात को 27 पद्य अकित हैं । रचना साधारण होते हुए भी सुन्दर और प्रवाहयुक्त है, और सोलहवीं दाताब्दी के कृपण ने सुना तो अपने मन में बहुत पछताया । यदि हिन्दी भाषा के विकास क्रम को प्रस्तुत करती है। इस मैं भी गया होता तो खूब ज्योनार खाता, व्यापार कृति में कवि के निवास स्थान चम्पावती (चाकस) करता, और धन कमाकर लाता । पर हाय मैं कुछ भी में संवत् 15:8 के लगभग घटित एक ऐतिहासिक नहीं कर सका। दैव योग से कृपण बीमार हो गया। घटना के आँखों देखे दृश्य का चित्रण किया गया है उसका अन्त समय समझकर कुटम्बियों ने उसे सम जिससे उसका ऐतिहासिक महत्व हो गया है। कवि ने झाया और दान-पुण्य करने की प्रेरणा की । तब कृषण इस कृति की रचना संवत् 1578 के माघ महीने ने गुस्से से भरकर कहा कि मेरे जीने या मरने पर शुक्ल पक्ष की दोइज के दिन पूरा किया था जैसा कि कौन मेरा धन ले सकता है। मैंने धन को बड़े यत्न से उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है :रखा है। राजा, चोर, और आग से उसकी रक्षा की है । अब मैं मृत्यु के सम्मुख हूँ, अतः हे लक्ष्मी तू घेढ णंदण ठकरसी नाम, जिण पाय पंकय भसल । मेरे साथ चल, मैंने तेरे कारण अनेक दुःख सहे हैं। तेण पास यम कियउ सचो जवि । तब लक्ष्मी कपण से कहती है कि पंदरासय अठहत्तर माह मास सिय पख दुय जवि । पढ़हि गुणहिं जे णारि-णर तह पूरिय मन आस । "लच्छि कहै रे कृपण झूठ हों कदे न बोलों, इउं जाणे पिणु नित्त तुहु पढ़ि पंडित मल्लिदास ।।27 जु को चलण दुइ देइ गैलत्मागी तसु चालों। प्रथम चलण मुझ एहु देव-देहुरे ठविज्जे, __ शाह इब्राहीम ने जब रणथम्भौर पर आक्रमण दूजे जात-पति? दाणु चउ संघहिं दिज्जै । किया, और उसका प्रबल सैन्यदल नगर में और उसके ये चलण दुवै त भंजिया ताहि विहणी क्यों चलौं, आसपास के स्थानों में लूट-खसोट और मार-काट करने झखमारि जाय तू हौं रही वहडि न संगि थारे चलौं ।" लगा, तब चम्पावती को छोड़कर अन्य नगरों के जन संत्रस्त होकर इधर-उधर भागने लगे उन्हें देखकर मेरी दो बातें हैं, उनमें से प्रथम तो मैं देव मन्दिरों चम्पावती के निवासी जन भी घबड़ाने लगे, और में रहती है। दूसरे यात्रा, प्रतिष्ठा, दान और चतुर्विध उनमें से कितने ही जन भागने को उद्यत हुए । तब संघ के पोषणादि कार्य हैं। उनमें से तने एक भी नगर के प्रमुख पंडित मल्लिदास आदि सज्जनों ने नहीं किया। अतः मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती। पार्श्व भवन में जाकर भगवान पार्श्वनाथ की मिलकर २५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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