Book Title: Rajasthan ke Kavi Thukarsi
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 2
________________ कवि की इस समय सात कृतियाँ उपलब्ध हैं। संलग्न रहता था, कि किसी तरह से सम्पत्ति संचित वे सभी कृतियाँ अभी तक अप्रकाशित हैं। उनका अव- होती रहे परन्तु उरे खर्च न करना पड़े। उसने कभी "लोकन करने से जहाँ कवि की काव्य-शक्ति का परिचय दान, पूजा, माला, उत्सव आदि धार्मिक कार्यों में मिलता है वहाँ उनकी प्रतिभा का दर्शन हए बिना नहीं धन खर्च न किया था । माँगनेवालों को कभी भूलरहता । रचनाओं में स्वाभवतः माधुर्य और प्रासाद है, कर भी नहीं देता था, और न किसी देव मन्दिर, गोठ और गति में प्रवाह है, उन्हें पढ़ते हए जी अरुचि नहीं या सहभोज में ही धन को व्यय करता था । भाई, होती, किन्तु शुरू करने पर उसे पूरी किये बिना छोड़ने वहिन, बुआ, भतीजी और भाणिजी आदि के न्योता को जी नहीं चाहता । आपकी सातों रचनाओं के नाम आने पर कभी नहीं जाता था, किन्तु सदा रूखा-सा निम्न प्रकार हैं बना रहता था। उसने कभी सिर में तेल डालकर स्नान नहीं किया था । धन के लिए झूट बोलता था, कृपाण चरित्र, पारसनाथ श्रवण सत्ताइसी, जिन- झूठा लेख लिखाता था, कभी पान नहीं खाता था और चउबीसी, मेघमाला ब्रतकथा, पंचेन्द्रिय वेलि. नेमिसर की न किसी को खिलाता था । न कभी सरस भोजन ही वेलि, और चिन्तामणि जयमाल । इनमें से प्रथम रचना करता था, और न कभी चन्दनादि द्रव्य का लेप ही का परिचय पं. नाथरामजी प्रेमी बम्बई ने अपने करता था। न कभी नया कपड़ा पहिनता था, कभी हिन्दी साहित्य के इतिहास में कराया था। कृपण खेल-तमाशे देखने भी नहीं जाता था, और न गीत रस चरित की एक प्रतिलिपि मेरे पास है, जिसे मैंने सन् ही सुहाता था, कपड़ा फट जाने के भय से उन्हें कभी 1945 में जयपुर के किसी गुच्छक पर से नोट की से नोट की नहीं धोता था। कभी-कभी अभ्यागत या पाहना आ नहा धाता था थी। कवि ने इसमें अपनी आँखों देखी एक घटना का मी आँखों देखी एक घटना का जाने पर भी उसे नहीं खिलाता था-मुह छिपाकर मारे घटता माजीत और नविन कसे हर जाता था इसी से पत्नी से रोजाना कलह 35 पद्यों में अंकित करने का प्रयत्न किया है। रचना होती थी, जैसा कि कवि की निम्न पंक्तियों से सरस और प्रसाद गुण से भरपूर है। और कवि ने प्रकट है :उसे वि. सं. 1580 के पौष महीने की पंचमी के दिन पूर्ण किया है, घटना का संक्षिप्त परिचय निम्न __ "झूठ कथन नित खाइ लेख लेखौ नित झूठी, प्रकार है झूठ सदा सहु कर, झूठ, नहु होइ अपूठो । झूठी बोल साखि, झूठे झगड़े नित्य उपाब, जहि तहि बात विसासि धूति धनु घर महि ल्यावं एक प्रसिद्ध कृपण व्यक्ति उसी नगर में रहता था, लोभ कोल यों चेते न चिति जो कहिजै सोइ खवै, जहाँ कविवर निवास करते थे । वह जितना अधिक धन काज झूठ बोल कृपणु मनुखजनम लाधो गवै ।।5।। कृपण था उसकी धर्मपत्नी उतनी ही अधिक उदार और विदुषी थी। वह दान-पूजा-शील आदि का पालन कदेन खाइ तंबोलु सरसु भोजन नहीं भक्ख, करती थी। कृपण ने सम्पदा को बड़े भारी यत्न और कदे न कापड़ नवा पहिरि काया सुख रक्खै । अनेक कौशलों से प्राप्त किया था । धन संचय की उस कदे न सिर में तेल घालि मल मूरख न्हावं, की लालसा इतनी अधिक बढ़ी हुई थी, वह उसका कदे न चन्दन चरचे अंग अवीरु लगावै । जोड़ना जानता था, किन्तु खर्च करने का उसे भारी पेषणो कदे देख नहीं श्रवणु न सुहाई गीत-रसु । भय लगा रहता था । वह रात दिन इसी चिन्ता में घर घरिणी कहै इम कंत स्यौं दई काइ दीन्हीं न यसु ।।6।। २५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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