Book Title: Rajasthan ke Kavi Thukarsi
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 7
________________ 'केलि करता जनम जन, गाल्यो लोभ दिखालि । मीन मुनिख संसार सरि, काढयो धीवर कालि ॥ इस दोहे में जन्म को जल, मनुष्य को मछली, संसार को सरिता और काल को धीवर के रूप में देखना कितना सार्थक है । कवि ने आगे लिखा है 'सो काढ्यो धीवर काल, तिण गाल्यो लोभ दिखाले । मथ नीर गहीर पईठी, दिठि जाय नहीं जहां दीठो ॥ इह रसना रसको पायौ पनि आइ सबइ दुख सात्यो । इह रसना रस के नाई, नर मुस बाप गुरु भाई ॥ घर फेड वा पांडे वांटा, नित कर कपट घण घाटा। मुख झूठ सांच नहि बोलै, घर छांडि दिसावर डोलें ॥ कुल ऊँच नीच नहि लेखइ, मूरख माहि भलि लेखइ । यह रस के लीये नर कुणकुण करम न कीये ॥ रसना उस विषय विकारी, वसि होय न औगुण बागारी। जिह इहु विषय बसि कीयो, तिहि मुनिख जनम फल लीमो ॥" इस पद्य में कवि ने रसना की आसक्ति से होने वाले परिणाम का दिग्दर्शन कराया है। रसना के जाल में पड़कर लोग घर की पूँजी और प्रतिष्ठा को पूलि में मिला देते हैं और छल-कपट का सहारा लिये भले मानुष इधर-उधर भटकते फिरते हैं। स्वाद के साम्राज्य कुल परम्परा और सत्य को ताक में रखकर दिसावरों में डोलते फिरते हैं | यह कितना चुभता हुआ व्यंग है, जिसमें कोई कांटा और चुभन नहीं है परन्तु वह हृदय को उद्वेलित कर देता है। अन्त में कवि ने वह भावना व्यक्त की है कि जिसने रस विषय पर विजय प्राप्त करली, उसी का जीवन सफल है में "भ्रमर पट्टो कमल दिनि, घ्राण गन्धि रस रूढ । रेण पडया सो संकुच्यो नीसर सदयो न मूढ ॥ सोनीसर सक्यो न मूढो, अति प्राण गंधि रस गूढौ । मनचिते रथणि सवयी, रस लेस्यों आज अपायो । Jain Education International जब ऊ लो रवि विमलो, सरवर विकसद्द लो कमलो । नीसर स्यों तब यह छोर्ड, रस लेस्यो आइ बहोडे ।। चितवते ही गज आयो, दिनकर उगवा न पायो । जल पेठी सखर पीयौ, नीसरत कमल खड़ लीयो ॥ गहि सूंड पावतल चंप्यो, अलिमाखो पर हरि कंप्यो । इहु गंध विषम छै भारी, मनि देख हुव्यौ न विचारी ॥ २६२ घ्राण इन्द्रिय की शक्ति बड़ी प्रबल है । वह दूर से ही छिपी हुई वस्तु का पता लगा लेती है। बिल्ली को दूध का पता जल्दी लग जाता है और भोंरे को कमल का, चींटी को मिठाई का सुरभित सुवास मिलने पर हम प्रमुदित होते हैं और बीभत्स गंध मिलने पर नाकमुँह सिकोड़ लेते हैं और उससे दूर भागने का यत्न करते हैं। जिस तरह गंध लोलुपी भ्रमर कमल की पराग का रस लेता हुआ, उसमें इतना आसक्त हो जाता है कि कमल की कली से निकलना भूल जाता है। दिनास्त में कमल कली सम्पुट हो गई । और रस की खुमारी में बेसुध हुआ भ्रमर अनेक रंगीन कल्पना सूर्योदय होगा, कमल कलियाँ विकसित होंगी, मैं उससे करता है-- रातभर खूब रस पिऊँगा, जब प्रातः काल निकल जाऊंगा। इसी विचार मुद्रा में एक हाथी सरो वर में जल पीने आया, और जल पीकर कमल को उखाड़ लिया, और पग तले दाबकर उसे खा गया। बेचारा भौरा अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। अस्तु भरे आसक्ति का परित्याग करना चाहिये । के मरण को दृष्टि में रखते हुए गंध का लोभ और आंखों का काम देखना है। यह जीव नेषों द्वारा रूप देखने का आदी है। जब यह रूप-सौन्दर्य के अवलोकन में आसक्त हो जाता है, तब अपना आपा खो बैठता है । आज संसार में रूपासक्ति के कारण कितना व्यभिचार हो रहा है। पतंग ज्योति रूप को देखकर अपने प्राण निछावर कर देता है, उसके अंग-प्रत्यंग विदग्ध हो उठते हैं उसी तरह पुरुष भी नारी के अप्रतिम सौन्दर्य को निरखकर रूपासक्त हो अपना सर्वस्व खोकर प्राणों से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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