Book Title: Rajasthan ke Kavi Thukarsi
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के कवि ठकुरसी परमानन्द जैन शास्त्री राजस्थान भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण अंग संकटों और भयावह समयों के झंझावातों से भारतीय है। यहाँ की भूमि वीर प्रसव रही है। यहाँ के वीरों साहित्य को संरक्षण प्रदान किया है । इस कारण वे की वीरता. साहस, शौर्य की गरिमा से राजस्थाा अभिनंदनीय हैं । कवि ठकुरसी राजस्थान की इस महान गौरवान्वित है । उसी तरह वह साहित्य और संस्कृति परम्परा के एक प्रमुख कवि थे, भारतीय साहित्य को के लिए भी गौरव का स्थान रहा है। यहाँ के साहित्य उनकी देन अविस्मरणीय है। मनीषियों ने वीर योद्धाओं की तरह संस्कृति के संर"क्षण और साहित्य निर्माण द्वारा देशभक्ति, नैसिकता कवि ठकुरसी कविवर घेल्ह के पुत्र थे। इनकी और सांस्कृतिक जागरूकता का परिचय दिया है । इस माता बड़ी धर्मिष्ठा थी। गोत्र पहाड्या, जाति खंडेलइष्टि से राजस्थान की महत्ता लोक गौरव का प्रतीक बाल और धर्म दिगम्बर जैन था । यह सोलहवीं है। राजस्थान के विपुल शास्त्र भंडारों में विविध शताब्दी के अच्छे कवि कहे जाते थे। कविता करना भाषाओं में कवियों की रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। एक प्रकार से आप की पैतृक सम्पत्ति थी क्योंकि वहाँ अनेक जैनाचार्यों, विद्वानों, भट्टारकों और कवियों आपके पिता भी अच्छी कविता करते थे। परन्त का यत्र-तत्र विहार रहा है, जिससे देश में जागृति और अद्यावधि उनकी कोई रचना अवलोकन में नहीं आई। धार्मिक मर्यादाओं का संरक्षण हुआ है। उन्होंने अनेक संभव है अन्वेषण करने पर प्राप्त हो जाय । 1. पपड पहाडिह वंस शिरोमणि, घेल्हा गरू तसु तियवर धरमिणी । ताह तणइ कवि ठाकूरि सुन्दरि, यह कहि किय संभव जिणमंदिरि ॥ मेघमालावय प्रशस्ति २५६ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि की इस समय सात कृतियाँ उपलब्ध हैं। संलग्न रहता था, कि किसी तरह से सम्पत्ति संचित वे सभी कृतियाँ अभी तक अप्रकाशित हैं। उनका अव- होती रहे परन्तु उरे खर्च न करना पड़े। उसने कभी "लोकन करने से जहाँ कवि की काव्य-शक्ति का परिचय दान, पूजा, माला, उत्सव आदि धार्मिक कार्यों में मिलता है वहाँ उनकी प्रतिभा का दर्शन हए बिना नहीं धन खर्च न किया था । माँगनेवालों को कभी भूलरहता । रचनाओं में स्वाभवतः माधुर्य और प्रासाद है, कर भी नहीं देता था, और न किसी देव मन्दिर, गोठ और गति में प्रवाह है, उन्हें पढ़ते हए जी अरुचि नहीं या सहभोज में ही धन को व्यय करता था । भाई, होती, किन्तु शुरू करने पर उसे पूरी किये बिना छोड़ने वहिन, बुआ, भतीजी और भाणिजी आदि के न्योता को जी नहीं चाहता । आपकी सातों रचनाओं के नाम आने पर कभी नहीं जाता था, किन्तु सदा रूखा-सा निम्न प्रकार हैं बना रहता था। उसने कभी सिर में तेल डालकर स्नान नहीं किया था । धन के लिए झूट बोलता था, कृपाण चरित्र, पारसनाथ श्रवण सत्ताइसी, जिन- झूठा लेख लिखाता था, कभी पान नहीं खाता था और चउबीसी, मेघमाला ब्रतकथा, पंचेन्द्रिय वेलि. नेमिसर की न किसी को खिलाता था । न कभी सरस भोजन ही वेलि, और चिन्तामणि जयमाल । इनमें से प्रथम रचना करता था, और न कभी चन्दनादि द्रव्य का लेप ही का परिचय पं. नाथरामजी प्रेमी बम्बई ने अपने करता था। न कभी नया कपड़ा पहिनता था, कभी हिन्दी साहित्य के इतिहास में कराया था। कृपण खेल-तमाशे देखने भी नहीं जाता था, और न गीत रस चरित की एक प्रतिलिपि मेरे पास है, जिसे मैंने सन् ही सुहाता था, कपड़ा फट जाने के भय से उन्हें कभी 1945 में जयपुर के किसी गुच्छक पर से नोट की से नोट की नहीं धोता था। कभी-कभी अभ्यागत या पाहना आ नहा धाता था थी। कवि ने इसमें अपनी आँखों देखी एक घटना का मी आँखों देखी एक घटना का जाने पर भी उसे नहीं खिलाता था-मुह छिपाकर मारे घटता माजीत और नविन कसे हर जाता था इसी से पत्नी से रोजाना कलह 35 पद्यों में अंकित करने का प्रयत्न किया है। रचना होती थी, जैसा कि कवि की निम्न पंक्तियों से सरस और प्रसाद गुण से भरपूर है। और कवि ने प्रकट है :उसे वि. सं. 1580 के पौष महीने की पंचमी के दिन पूर्ण किया है, घटना का संक्षिप्त परिचय निम्न __ "झूठ कथन नित खाइ लेख लेखौ नित झूठी, प्रकार है झूठ सदा सहु कर, झूठ, नहु होइ अपूठो । झूठी बोल साखि, झूठे झगड़े नित्य उपाब, जहि तहि बात विसासि धूति धनु घर महि ल्यावं एक प्रसिद्ध कृपण व्यक्ति उसी नगर में रहता था, लोभ कोल यों चेते न चिति जो कहिजै सोइ खवै, जहाँ कविवर निवास करते थे । वह जितना अधिक धन काज झूठ बोल कृपणु मनुखजनम लाधो गवै ।।5।। कृपण था उसकी धर्मपत्नी उतनी ही अधिक उदार और विदुषी थी। वह दान-पूजा-शील आदि का पालन कदेन खाइ तंबोलु सरसु भोजन नहीं भक्ख, करती थी। कृपण ने सम्पदा को बड़े भारी यत्न और कदे न कापड़ नवा पहिरि काया सुख रक्खै । अनेक कौशलों से प्राप्त किया था । धन संचय की उस कदे न सिर में तेल घालि मल मूरख न्हावं, की लालसा इतनी अधिक बढ़ी हुई थी, वह उसका कदे न चन्दन चरचे अंग अवीरु लगावै । जोड़ना जानता था, किन्तु खर्च करने का उसे भारी पेषणो कदे देख नहीं श्रवणु न सुहाई गीत-रसु । भय लगा रहता था । वह रात दिन इसी चिन्ता में घर घरिणी कहै इम कंत स्यौं दई काइ दीन्हीं न यसु ।।6।। २५७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । वह दे न खाण खरचं न कि दुवै करहि दिनि कलह अति संगी भतीजी भुवा वहिणि भणिजी न ज्यावे रहे रूसो मोडि आपु ग्योतो जब आये । पाहूणो सगो आयो सुर्ण रहे छिप्पो मुख रखकर जिव जाय तिवहि नीसरै यों धनु संच्यो कृपण नर ॥" कृपण की पत्नी, जब नगर की दूसरी स्त्रियों को अच्छा खाते-पीते और अच्छे वस्त्र पहिनते तथा धर्म कर्म का साधन करते देखती तो अपने पति से भी वैसा ही करने को कहती । इस पर दोनों में कलह हो जाती थी। तब वह सोचती है कि मैंने पूर्व में ऐसा क्या पाप किया है जिससे मुझे ऐसे अत्यन्त कृष्ण पति का समागम मिला । क्या मैंने कभी कुदेव की पूजा की, सुगुरु साधुओं की निन्दा की, कभी झूठ बोला, दया न पाली, रात्रि में भोजन किया, या व्रतों की संख्या का अपलाप किया। मालूम नहीं मेरे किस पाप का उदय हुआ जिससे मुझे ऐसे कृपण पति के पाले पड़ना पड़ा, जो न खरचे, न खरचने दे, निरन्तर लड़ता ही रहता है । एक दिन पत्नी ने सुना कि गिरनार की यात्रा करने संघ जा रहा है । तब उसने रात्रि में हाथ जोड़ कर हँसते हुए पति से संघ यात्रा का उल्लेख किया और कहा कि सब लोग संघ के साथ गिरनार और शत्रुंजय की यात्रा के लिए जा रहे हैं । वहाँ नेमिजिनेन्द्र की वन्दना करेंगे, जिन्होंने राजमति को छोड़ दिया था । वे वन्दना - पूजाकर अपना जन्म सफल करेंगे, जिससे वे पशु और नरक गति में न जायेंगे, और नरक गति में न जायेंगे, किन्तु अमर पद प्राप्त करेंगे। अतः आप भी चलिए । इस बात को सुनकर कृपण के मस्तक में सिलवट पड़ गई, वह बोला कि क्या तू बावली हुई है, जो धन खरचने की तेरी बुद्धि हुई । मैंने धन चोरी से नहीं लिया और न पड़ा हुआ पाया, दिन रात नींद, भूख, प्यास की वेदना सही, बड़े दुःख से उसे प्राप्त किया है। अतः खरचने की बात अब मुंह से न निकालना । तब पत्नी बोली हे नाथ ! लक्ष्मी तो बिजली के । समान चंचला है । जिनके पास अटूट धन और नवनिधि थी, उनके साथ भी धन नहीं गया। जिन्होंने केवल संचय किया, उन्होंने उसे पाषाण बनाया, जिन्होंने धर्म कार्य में खर्च किया, उनका जीवन सफल हुआ । इसलिए अवसर नहीं चूकना चाहिए, नहीं मालूम किन पुण्य परिणामों से अनन्त धन मिल जाय । तब कृपण कहता है कि तू इसका भेद नहीं जानती । पैसे बिना आज कोई अपना नहीं है। धन के बिना राजा हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी को बेचा था तव पत्नी कहती है कि तुमने दाता और दान की महत्ता नहीं समझी। देखो, संसार में राजा कर्ण और विक्रमादित्य से दानी राजा हो गये हैं, सूम का कोई नाम नहीं लेता, जो निस्पृह और सन्तोषी हैं वह निर्धन होकर भी सुखी है किन्तु जो धनवान होकर भी चाह दाह में जलता रहता है वह महादुखी है। मैं किसी की होड़ नहीं करती, पर पुण्य कार्य में धन का लगाना अच्छा ही है । जिसने केवल धन संचय किया, किन्तु स्व-पर के उपकार में नहीं लगाया वह चेतन होकर भी अचेतन जैसा है, जैसे उसे सर्प ने डस लिया हो। इतना सुनकर कृपण गुस्से से भर गया और उठ कर बाहर चला गया । तव रास्ते में उसे एक पुराना मित्र मिला। उसने कृपण से पूछा, मित्र ! आज तेरा मन म्लान क्यों है ? क्या तुम्हारा धन राजा ने छीन लिया, या घर में चोर आ गए, या घर में कोई पाहुना आ गया है, या पत्नी ने सरस भोजन बनाया है । किस कारण से तेरा मुख आज म्लान दीख रहा है । कृपण ने कहा - मित्र ! मुझे घर में पत्नी सताती है, यात्रा में जाने के लिए धन खरचने के लिए कहती है, जो मुझे नहीं माता, इसी कारण में दुर्बल हो रहा हूँ । रात-दिन भूख नहीं लगती । मित्र मेरा तो मरण आ गया है । तब मित्र ने कहा, हे कृपण ! सुन, तू मन में दुःख न कर । पापिनी को पीहर पठाय दे, जिससे तुझे कुछ सुख मिले। यह सुनकर कृपण को अति हर्ष हुआ । २५८ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक आदमी को बुलाकर एक झूठा लेख लिख दिया. इस तरह कृपण विचार कर ही रहा था कि कि तेरे जेठे भाई के घर पुत्र हुआ है, अतः तुझे बुलाया जीभ थक गई, वह बोलने में असमर्थ हो गया, और है । यद्यपि पत्नी पति के इस प्रपंच को जानती थी, वह इस संसार से विदा हो गया और कुगति में गया । किन्तु फिर भी वह उस पुरुष के साथ पीहर चली पश्चात् पत्नि आदि ने उस संचित द्रव्य को दान गई। धर्मादि कार्यों में लगाया । कवि की दूसरी कृति 'पारसनाथ श्रवण सत्ताइसी' जब संघ यात्रा से लौट कर आया, तब ठौर है, जिसमें जैनियों के तेवीसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का ठौर ज्योंनारें की गई, महोत्सव किए गये और जीवन-परिचय और स्तवन दिया हुआ है । रचना में मांगनेवालों को दान दिया गया, अनेक बाजे बजे, और लोगों ने असंख्य धन कम या। जब इस बात को 27 पद्य अकित हैं । रचना साधारण होते हुए भी सुन्दर और प्रवाहयुक्त है, और सोलहवीं दाताब्दी के कृपण ने सुना तो अपने मन में बहुत पछताया । यदि हिन्दी भाषा के विकास क्रम को प्रस्तुत करती है। इस मैं भी गया होता तो खूब ज्योनार खाता, व्यापार कृति में कवि के निवास स्थान चम्पावती (चाकस) करता, और धन कमाकर लाता । पर हाय मैं कुछ भी में संवत् 15:8 के लगभग घटित एक ऐतिहासिक नहीं कर सका। दैव योग से कृपण बीमार हो गया। घटना के आँखों देखे दृश्य का चित्रण किया गया है उसका अन्त समय समझकर कुटम्बियों ने उसे सम जिससे उसका ऐतिहासिक महत्व हो गया है। कवि ने झाया और दान-पुण्य करने की प्रेरणा की । तब कृषण इस कृति की रचना संवत् 1578 के माघ महीने ने गुस्से से भरकर कहा कि मेरे जीने या मरने पर शुक्ल पक्ष की दोइज के दिन पूरा किया था जैसा कि कौन मेरा धन ले सकता है। मैंने धन को बड़े यत्न से उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है :रखा है। राजा, चोर, और आग से उसकी रक्षा की है । अब मैं मृत्यु के सम्मुख हूँ, अतः हे लक्ष्मी तू घेढ णंदण ठकरसी नाम, जिण पाय पंकय भसल । मेरे साथ चल, मैंने तेरे कारण अनेक दुःख सहे हैं। तेण पास यम कियउ सचो जवि । तब लक्ष्मी कपण से कहती है कि पंदरासय अठहत्तर माह मास सिय पख दुय जवि । पढ़हि गुणहिं जे णारि-णर तह पूरिय मन आस । "लच्छि कहै रे कृपण झूठ हों कदे न बोलों, इउं जाणे पिणु नित्त तुहु पढ़ि पंडित मल्लिदास ।।27 जु को चलण दुइ देइ गैलत्मागी तसु चालों। प्रथम चलण मुझ एहु देव-देहुरे ठविज्जे, __ शाह इब्राहीम ने जब रणथम्भौर पर आक्रमण दूजे जात-पति? दाणु चउ संघहिं दिज्जै । किया, और उसका प्रबल सैन्यदल नगर में और उसके ये चलण दुवै त भंजिया ताहि विहणी क्यों चलौं, आसपास के स्थानों में लूट-खसोट और मार-काट करने झखमारि जाय तू हौं रही वहडि न संगि थारे चलौं ।" लगा, तब चम्पावती को छोड़कर अन्य नगरों के जन संत्रस्त होकर इधर-उधर भागने लगे उन्हें देखकर मेरी दो बातें हैं, उनमें से प्रथम तो मैं देव मन्दिरों चम्पावती के निवासी जन भी घबड़ाने लगे, और में रहती है। दूसरे यात्रा, प्रतिष्ठा, दान और चतुर्विध उनमें से कितने ही जन भागने को उद्यत हुए । तब संघ के पोषणादि कार्य हैं। उनमें से तने एक भी नगर के प्रमुख पंडित मल्लिदास आदि सज्जनों ने नहीं किया। अतः मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती। पार्श्व भवन में जाकर भगवान पार्श्वनाथ की मिलकर २५६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति की, और यह प्रार्थना की कि भगवन् ! हमें चौथी कृति 'मेषमाला व्रतकथा' है। इस कथा आपका ही सहारा है, हम सब लोगों की इस विपत्ति की उपलब्धि भट्टारक हर्षकीर्ति अजमेर के शास्त्र से रक्षा हो । ऐसा कहने के पश्चात् भी लोगों को यह भंडार के एक गुटके पर से हुई है। यह कथा 115 विश्वास न था कि इस विपत्ति से हमारा संरक्षण हो कठवक और 211 श्लोकों के प्रमाण को लिए हुए है। जावेगा। किन्तु उसी समय जनता को यह स्वयं आमास इस ग्रन्थ की आदि अम्त प्रशस्ति में इस कथा के रचने होने लगा कि घबड़ाओ नहीं, शान्त चित्त से रहो, में प्रेरक, तथा कथा कहाँ बनाई गई, वहाँ के राजा सब शान्ति हो जायेगी और लोगों के देखते-देखते और कथा का रचना काल दिया हुआ है। । ही वह भयंकर विपदा सहसा ढल गई । लोगों को अभय मिला, प्रजा में शान्ति होगई, चित्त में निर्भयता आई | यह दृश्य देख जनता पार्श्वनाथ की जय बोलने लगी। जो लोग भय से भाग गये थे, वे अधिक दुःखी हुये, किन्तु नगर में रहनेवाले जन सुखी रहे। यह कवि का आँखों देखा घटना वर्णन कवि के शब्दों में इस प्रकार है : | । जब सुलीय उ राणि संग्राम, रणथंमुवि दुग्ग गहु । जब इब्राहिम साहि कोपिङ, बलु बोली मोकलिउ । बोलु कवल सबु तेण लोपिङ, जिव लग उग्झलि हाय सउं मेच्ख मूढ भय वज्जि, चंपावति विणु देस सब गणवह दिसमंज 1121 तबहि कंपि सथल पुरलोउ, कोइ न कसु वर जिउ रहइ भाजि दहै दिसि जाण लगे, मिलिबिकरी तब बीनती । पारसणाह स्वामी सु अर्थ, सवणा जोतिक केवलि । चितु न करे विसासु, कालि पंचम पास पहु, जुग लगउ तु आस ॥22॥ एम पि विकरि विथुई पुज्ज, महिलदास पंडित पमुह । स इह था समीपु चायउ उच्चावंत न उच्चयउ । वो जाणि सुरविर सवीय इणविधि परतिउवारतिहु पूरि वि हरी भणति, जयवंतहु हो पास पहु, जेण करी सुख सांति ॥24॥ । कवि की तीसरी कृति 'जन चउबीसी' है, जिसमें जैनियों के चौबीस तीर्थ करों का स्तवन किया गया है । स्तवन सुन्दर है । २६० । मेघमाला व्रत भाद्रपद मास की प्रथम प्रतिपदा से शुरू करे, उस दिन उपवास करे और जिन पूजा विधान तथा अभिषेक करे, सारा दिन धर्म ध्यान में व्यतीत करे और पांच वर्ष पर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान करे । पश्चात् उसका उद्यापन करें, उद्यापन की शक्ति न हो तो दूने दिनों तक व्रत पाले । जिन लोगों ने उस समय इस व्रत का पालन किया था, कवि ने उनका नाम भी प्रशस्ति में अंकित किया है। उससे ज्ञात होता है कि उस समय चम्पावती में इस व्रत के अनेक अनुष्ठाता थे, जिन्होंने निष्ठा से व्रत का पालन किया था । उस समय वहाँ राजा रामचन्द्र का राज्य था, और भट्टारक प्रभाचन्द्र वहां मौजूद थे । इस ग्रन्थ की आदि प्रशस्ति में बतलाया है कि कि देश के मध्य में चम्पावती ( जयपुर राज्य दुढ़ाहड वर्तमान चारसू ) नाम की एक नगरी है, जो उस समय धन-धान्यादि से विभूषित थी और जिसके शासक राजा रामचन्द्र थे । वहाँ भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर भी बना हुआ था जिसमे तात्कालिक मट्टारक प्रभाचन्द्र गौतम गणधर के समान बैठे थे और जो नगर निवासी भव्यजनों को धर्मामृत का पान करा रहे थे। उनमें मल्लिदास नामक वणिक पुत्र ने कवि ठकुरसी से मेघमाला व्रत कथा कहने की प्रेरणा की । उस समय चम्पावती नगरी में अन्य समाजों के साथ खंडेलवाल जाति के अनेक घर थे जिनमें अजमेरा और पहाडया गौत्रादि के सज्जनों का निवास था, जो श्रावकोचित । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाओं का सदा अनुष्ठान करते रहते थे। वहाँ तोषक समझाया है । कवि ने लिखा है कि स्पर्शन इन्द्रिय नाम के एक विद्वान भी रहते थे । श्रावकजनों में उस प्रबल है, उसे वश में करना दुष्कर कार्य है किन्तु समय जीणा, ताल्ह, पारस, वाकुलीवाल, नेमिदास, जिन्होंने उसे वश में किया वे संसार में सुखी हएनाथसि और भूल्लण आदि श्रावकों ने मेघमाला ब्रत का पालन किया था । यहां हाथुव साह नाम के एक वन तरुवर फल खातु फिर, पय पीवती सुछंद । परसण इन्द्रिय प्रेरियो, बह दुख सहई गयंद ।। महाजन भी रहते थे, उनके और भट्टारक प्रभाचन्द्र के उपदेश से कवि ने मेघमाला व्रत की विधि-विधान कवि ने आगे पद्य में स्पर्शन इन्द्रिय की आसक्ति का उल्लेख करते हए संवत 1580 में प्रथम श्रावण से होनेवाले दुःखों का वर्णन करने हुए लिखा है कि सुदी छठवीं के दिन उक्त कथा को पूर्ण किया था कामातुर हाथी कागज की हथिनी के कारण गड्ढे में जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है : पड़कर छुवा-तृषादि के घने दुःख सहता है, वह वहाँ से भाग भी नहीं सकता। उसके दुःख का कौन कवि हाथुव साह महत्ति महंते, पहाचंद गुरुउवए संते। वर्णन कर सकता है। कहाँ तो उसका सूछन्द वनभ्रमण, पणदह सइ जि असीते, आगल सावण मासि छट्ठिय वनों के उत्तम फल. और नदियों का निर्मल नीर, और __मंगल ॥ कहाँ पराधीन हुए हाथी की प्राण घातक अंकुश की कवि की पांचवी कृति 'पंचेन्द्रिय की बेलि, है। चोटें ? कवि ने स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कर्ण) इन पांचों इन्द्रियों के रूपक द्वारा जो शिक्षा या अनुभूति 'बहु दुख सहै गयंदो, तुम होय गई मति मंदो। कागज के कुजर काजै, पडि खाडै स क्यों न भाजै॥ प्रदान की है । वह केवल सुन्दर ही नहीं है, किन्तु मानव जीवन को आदर्श बनाने के लिये पीयूषधारा तिहि सहीय घणी तिथि भूखो, कवि कौन कहै तिस दूखो। है। कवि ने एक-एक इन्द्रिय के विषय में अच्छा विचार किया है और दृष्टान्तों द्वारा उसे पूष्ट किया इस तरह स्पर्शन इन्द्रिय के कारण अनेक मानवों है। उस पर दृष्टि डालने से मानव जनों ने भी दुख भोगे हैं। रावण भी इसी कारण मृत्यु को से विरक्त होकर आत्मसाधना की ओर अग्रसर हो प्राप्त हुआ, उसकी कथा प्रसिद्ध है । इसके वेग के कारण सकता है। कवि को अपनी इस कृति पर स्वाभिमान मानव अन्धा हो जाता है; उसे हित-अहित का विवेक है। उसकी मान्यता है कि- 'करि वेलि सरस गुण नहीं रहता । इसको वश में करने से लोक में यश और गाया चित चतुर मनुष समझाया' । कवि को अपनी सुख मिलता है। सफलता पर दृढ़ विश्वास है। उसने स्पष्ट शब्दों में रसना इन्द्रिय के वश हुआ मानव भी अपना लिख दिया है-'जिह्न मनु इन्द्रिय वसि कीया, तिह संतुलन खो बैठता है, वह विवेक को ताक में रख देता हरत परत जग जीया' । जिस मानव ने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, उसने जगत को जीत लिया है। है। रस के स्वाद में अनुरक्त हुआ अपने को भूलकर स्वादु बन जाता है, जो अन्त में उसके मरण का कारण कवि ने प्रस्तुत वेलि में इन्द्रियों का विवेचन होता है। कवि ने मानव रूपी मछली के रूपक द्वारा जातियों के क्रम से किया है। प्रारम्भ में एक दोहे में इस सत्य की विशद व्यंजना की है। दोहे में रूपक की स्पर्शन इन्द्रिय का स्वरूप हाथी का उदाहरण देकर छटा देखते ही बनती है २६१ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'केलि करता जनम जन, गाल्यो लोभ दिखालि । मीन मुनिख संसार सरि, काढयो धीवर कालि ॥ इस दोहे में जन्म को जल, मनुष्य को मछली, संसार को सरिता और काल को धीवर के रूप में देखना कितना सार्थक है । कवि ने आगे लिखा है 'सो काढ्यो धीवर काल, तिण गाल्यो लोभ दिखाले । मथ नीर गहीर पईठी, दिठि जाय नहीं जहां दीठो ॥ इह रसना रसको पायौ पनि आइ सबइ दुख सात्यो । इह रसना रस के नाई, नर मुस बाप गुरु भाई ॥ घर फेड वा पांडे वांटा, नित कर कपट घण घाटा। मुख झूठ सांच नहि बोलै, घर छांडि दिसावर डोलें ॥ कुल ऊँच नीच नहि लेखइ, मूरख माहि भलि लेखइ । यह रस के लीये नर कुणकुण करम न कीये ॥ रसना उस विषय विकारी, वसि होय न औगुण बागारी। जिह इहु विषय बसि कीयो, तिहि मुनिख जनम फल लीमो ॥" इस पद्य में कवि ने रसना की आसक्ति से होने वाले परिणाम का दिग्दर्शन कराया है। रसना के जाल में पड़कर लोग घर की पूँजी और प्रतिष्ठा को पूलि में मिला देते हैं और छल-कपट का सहारा लिये भले मानुष इधर-उधर भटकते फिरते हैं। स्वाद के साम्राज्य कुल परम्परा और सत्य को ताक में रखकर दिसावरों में डोलते फिरते हैं | यह कितना चुभता हुआ व्यंग है, जिसमें कोई कांटा और चुभन नहीं है परन्तु वह हृदय को उद्वेलित कर देता है। अन्त में कवि ने वह भावना व्यक्त की है कि जिसने रस विषय पर विजय प्राप्त करली, उसी का जीवन सफल है में "भ्रमर पट्टो कमल दिनि, घ्राण गन्धि रस रूढ । रेण पडया सो संकुच्यो नीसर सदयो न मूढ ॥ सोनीसर सक्यो न मूढो, अति प्राण गंधि रस गूढौ । मनचिते रथणि सवयी, रस लेस्यों आज अपायो । जब ऊ लो रवि विमलो, सरवर विकसद्द लो कमलो । नीसर स्यों तब यह छोर्ड, रस लेस्यो आइ बहोडे ।। चितवते ही गज आयो, दिनकर उगवा न पायो । जल पेठी सखर पीयौ, नीसरत कमल खड़ लीयो ॥ गहि सूंड पावतल चंप्यो, अलिमाखो पर हरि कंप्यो । इहु गंध विषम छै भारी, मनि देख हुव्यौ न विचारी ॥ २६२ घ्राण इन्द्रिय की शक्ति बड़ी प्रबल है । वह दूर से ही छिपी हुई वस्तु का पता लगा लेती है। बिल्ली को दूध का पता जल्दी लग जाता है और भोंरे को कमल का, चींटी को मिठाई का सुरभित सुवास मिलने पर हम प्रमुदित होते हैं और बीभत्स गंध मिलने पर नाकमुँह सिकोड़ लेते हैं और उससे दूर भागने का यत्न करते हैं। जिस तरह गंध लोलुपी भ्रमर कमल की पराग का रस लेता हुआ, उसमें इतना आसक्त हो जाता है कि कमल की कली से निकलना भूल जाता है। दिनास्त में कमल कली सम्पुट हो गई । और रस की खुमारी में बेसुध हुआ भ्रमर अनेक रंगीन कल्पना सूर्योदय होगा, कमल कलियाँ विकसित होंगी, मैं उससे करता है-- रातभर खूब रस पिऊँगा, जब प्रातः काल निकल जाऊंगा। इसी विचार मुद्रा में एक हाथी सरो वर में जल पीने आया, और जल पीकर कमल को उखाड़ लिया, और पग तले दाबकर उसे खा गया। बेचारा भौरा अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। अस्तु भरे आसक्ति का परित्याग करना चाहिये । के मरण को दृष्टि में रखते हुए गंध का लोभ और आंखों का काम देखना है। यह जीव नेषों द्वारा रूप देखने का आदी है। जब यह रूप-सौन्दर्य के अवलोकन में आसक्त हो जाता है, तब अपना आपा खो बैठता है । आज संसार में रूपासक्ति के कारण कितना व्यभिचार हो रहा है। पतंग ज्योति रूप को देखकर अपने प्राण निछावर कर देता है, उसके अंग-प्रत्यंग विदग्ध हो उठते हैं उसी तरह पुरुष भी नारी के अप्रतिम सौन्दर्य को निरखकर रूपासक्त हो अपना सर्वस्व खोकर प्राणों से Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भी हाथ धोने बैठता है। कवि ठकूरसी ने रूपक के सहारे ठीक ही कहा है--यह नाद. सुणंतो सांपो, बिल छोड़ इस तथ्य को प्राणवान बना दिया है-'दिठि देख तके नीसरची आपो'-उसी तरह यह मानव भी हिरण की पर गोरी' वाक्य में कितनी सरल व्यंजना की है। तरह मधुर नाद के वशवी होकर अपने प्राणों का परिइतना ही नहीं किन्तु कवि ने अहिल्या और तिलोत्तमा त्याग कर देता है। का उदाहरण देकर अपने कथन को पुष्ट किया है। इन वेग पवन मन सारिसौ, वनवासै लय भीतु । पाँचों ही इन्द्रियों का स्वामी मन है, वह इन्द्रियों का सबल है, वही इनका प्रेरक है। यदि उसे वश मे कर __वधिक बाण मार्यो हिरण, कांनि सुणतो गीतु ॥ धणु खेचि वधिक सर हणियो, रस वीधो बाण न गिणियो। लिया जाय तो इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति ही न हो और वे निर्दोष बनी रहें; क्योंकि मन ही उन्हें कामासक्त इह नाद सुणतो सांपो, बिल छोड़ि नीसर्यो आपो॥" बनाता है । अतएव कवि ने ठीक ही कहा है - 'लोयणे इस तरह कवि ने इस रचना में पांचों इन्द्रियों के दोस को नाहीं, मन प्ररे देखन जांहीं।' अतः विवेकी विषयासक्त पाँच प्रतीकों द्वारा मानव को उद्बोधित मनीषियों का कर्तव्य है कि वे मन को वश में करने का करते हए पांचों इन्द्रियों को बस में करने का निर्देश प्रयत्न करें। उससे सुख मिलता है किया है । जो मानव इन पाँचों इन्द्रियों को वश में कर लेता है, वह उभयलोक में सुख पाता है किन्तु जो इनके नेह अचागल तेलतसु, वानी वचन सुरंग । वशवती होकर इन्द्रियों में विषयासक्त रहता है, वह रूप ज्योति पर तिय दिखे, पडइति पुरुष पतंग ।। जल्दी अपनी जीवन लीला से हाथ धो बैठता है-- पडइति पुरुष पतंगो, दुख दीवै दहै ति अंगो । पडि होइ तहां जीवि पाखै, दिठि खंचि न मूरख राखै । अलि, गज, मीन, पतंग, मृग, एके के दुख दीद्ध । दिठि देख करै नर चोरी, दिठि देख तके पर गोरी।। जायत भौ-भौ दुख सहै, जिहि वसि पंच न कीद्ध ।। दिठि देख कर नर पायो, दिठि दीढा बधइ सतायो। दिठि देखि अहिल्या इंदो, तनु विकल गई मति मंदो । कवि की इस कृति का रचना काल संवत् 1585, दिठि देखि तिलोत्तम भूल्यो, तप तपो विधाता इल्यो। कातिक सुदी त्रयोदशी है। ए लोयण लंपट कूठा, वरज्या नहिं होय अपूठा । संवत पंदरे से पंचासे तेरिस सूद कार्तिक मासे । ज्यों वरजं त्यों रस वाया, रंग देखे आपण भाया ।। जिहिमन इन्द्रिय वसि कीया, तिह हरत परत जग जीया।। लोयणे दोस को नाहीं, मन प्रेरै देखन जाही। जो नयण हु ते वसि राखै, सो हरत परत सुख वाखै ।। कवि की छठवीं कृति नेमीसुर की वेलि है जिसमें जैनियों के 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ और श्रोत्र इन्द्रिय का विषय शब्द की मधुरता, को. राजल का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। रचना मलता, और प्रियता पर प्राण निछावर करना जीव का शिक्षाप्रद है। कवि ने इसमें रचना काल नहीं दिया। स्वभाव है। सगीत की स्वणिम लहरी मानव को अपनी और आकृष्ट करती है। के की का रव बादलों की घटा कवि की सातवीं कृति 'चिन्तामणि जयमाल' है। फोड़कर सागर लहरा देता है। कूरंग वधिक का गीत यह 11 पद्यों की जयमाल है जिसमें पार्श्वनाथ के सुनकर प्राण घातक तीर से व्यथित हो प्राणों को छोड़ स्तवन रूप में मानव को संयमित जीवन व्यतीत देता है। सर्प भी नाद से मंत्रमुग्ध हो बिल से निकल- करने के लिये प्रेरित किया गया है, क्योंकि असंयम कर मनुष्य के आधीन हो जाता है, इसलिये कवि ने दुर्गणों की खान है। संयम के प्रभाव से ही शूली से Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहासन और सप से फूलों की माला बन गई थी। इससे संयम की महत्ता स्पष्ट है / रचना संक्षिप्त होते हए भी रोचक है / अन्तिम पद्य निन्न प्रकार है कवि की प्रायः सभी रचनाएँ पुरानी हिन्दी की है, उनमें अपभ्रंश भाषा के पुट के अतिरिक्त देशी भाषा के शब्दों की बहुलता है। इनका प्रकाशन व इन पर शोध कार्य होना चाहिये। धत्ता- इय वर जयमाला गुणहँ विसाला, घेल्ह सुतन ठाकुर कहए। जो णरु सुणि सिक्खवइ, दिण-दिण अंक्खइ, सो सुहुमण वंछि उलहए //