Book Title: Rajasthan ke Kavi Thukarsi Author(s): Parmanand Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 8
________________ . भी हाथ धोने बैठता है। कवि ठकूरसी ने रूपक के सहारे ठीक ही कहा है--यह नाद. सुणंतो सांपो, बिल छोड़ इस तथ्य को प्राणवान बना दिया है-'दिठि देख तके नीसरची आपो'-उसी तरह यह मानव भी हिरण की पर गोरी' वाक्य में कितनी सरल व्यंजना की है। तरह मधुर नाद के वशवी होकर अपने प्राणों का परिइतना ही नहीं किन्तु कवि ने अहिल्या और तिलोत्तमा त्याग कर देता है। का उदाहरण देकर अपने कथन को पुष्ट किया है। इन वेग पवन मन सारिसौ, वनवासै लय भीतु । पाँचों ही इन्द्रियों का स्वामी मन है, वह इन्द्रियों का सबल है, वही इनका प्रेरक है। यदि उसे वश मे कर __वधिक बाण मार्यो हिरण, कांनि सुणतो गीतु ॥ धणु खेचि वधिक सर हणियो, रस वीधो बाण न गिणियो। लिया जाय तो इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति ही न हो और वे निर्दोष बनी रहें; क्योंकि मन ही उन्हें कामासक्त इह नाद सुणतो सांपो, बिल छोड़ि नीसर्यो आपो॥" बनाता है । अतएव कवि ने ठीक ही कहा है - 'लोयणे इस तरह कवि ने इस रचना में पांचों इन्द्रियों के दोस को नाहीं, मन प्ररे देखन जांहीं।' अतः विवेकी विषयासक्त पाँच प्रतीकों द्वारा मानव को उद्बोधित मनीषियों का कर्तव्य है कि वे मन को वश में करने का करते हए पांचों इन्द्रियों को बस में करने का निर्देश प्रयत्न करें। उससे सुख मिलता है किया है । जो मानव इन पाँचों इन्द्रियों को वश में कर लेता है, वह उभयलोक में सुख पाता है किन्तु जो इनके नेह अचागल तेलतसु, वानी वचन सुरंग । वशवती होकर इन्द्रियों में विषयासक्त रहता है, वह रूप ज्योति पर तिय दिखे, पडइति पुरुष पतंग ।। जल्दी अपनी जीवन लीला से हाथ धो बैठता है-- पडइति पुरुष पतंगो, दुख दीवै दहै ति अंगो । पडि होइ तहां जीवि पाखै, दिठि खंचि न मूरख राखै । अलि, गज, मीन, पतंग, मृग, एके के दुख दीद्ध । दिठि देख करै नर चोरी, दिठि देख तके पर गोरी।। जायत भौ-भौ दुख सहै, जिहि वसि पंच न कीद्ध ।। दिठि देख कर नर पायो, दिठि दीढा बधइ सतायो। दिठि देखि अहिल्या इंदो, तनु विकल गई मति मंदो । कवि की इस कृति का रचना काल संवत् 1585, दिठि देखि तिलोत्तम भूल्यो, तप तपो विधाता इल्यो। कातिक सुदी त्रयोदशी है। ए लोयण लंपट कूठा, वरज्या नहिं होय अपूठा । संवत पंदरे से पंचासे तेरिस सूद कार्तिक मासे । ज्यों वरजं त्यों रस वाया, रंग देखे आपण भाया ।। जिहिमन इन्द्रिय वसि कीया, तिह हरत परत जग जीया।। लोयणे दोस को नाहीं, मन प्रेरै देखन जाही। जो नयण हु ते वसि राखै, सो हरत परत सुख वाखै ।। कवि की छठवीं कृति नेमीसुर की वेलि है जिसमें जैनियों के 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ और श्रोत्र इन्द्रिय का विषय शब्द की मधुरता, को. राजल का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। रचना मलता, और प्रियता पर प्राण निछावर करना जीव का शिक्षाप्रद है। कवि ने इसमें रचना काल नहीं दिया। स्वभाव है। सगीत की स्वणिम लहरी मानव को अपनी और आकृष्ट करती है। के की का रव बादलों की घटा कवि की सातवीं कृति 'चिन्तामणि जयमाल' है। फोड़कर सागर लहरा देता है। कूरंग वधिक का गीत यह 11 पद्यों की जयमाल है जिसमें पार्श्वनाथ के सुनकर प्राण घातक तीर से व्यथित हो प्राणों को छोड़ स्तवन रूप में मानव को संयमित जीवन व्यतीत देता है। सर्प भी नाद से मंत्रमुग्ध हो बिल से निकल- करने के लिये प्रेरित किया गया है, क्योंकि असंयम कर मनुष्य के आधीन हो जाता है, इसलिये कवि ने दुर्गणों की खान है। संयम के प्रभाव से ही शूली से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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