Book Title: Punya Paap ki Avdharna Author(s): Jashkaran Daga Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 4
________________ १५४ ] (i) क्रिया आवे | [ कर्म सिद्धान्त ईर्यापथिक - कषाय रहित जिसमें मात्र योगों के स्पंदन से (ii) साम्परायिक - कषाय सहित जो क्रियाएँ की जावें, उससे आत्मा में आने वाला कर्मास्रव जो बन्ध रूप होता है ।" इस साम्परायिक आस्रव के कारण कुल अड़तीस हैं जो निम्न प्रकार हैं : (१-५) (६-९) ( १०- १४) ( १५ - ३८) पुण्य-पाप की सम्यग् अवधारणा हेतु कर्म प्रकृतियाँ, उनमें पुण्य व पाप प्रकृतियां कौन-कौन सी हैं ? तथा पुण्य व पाप प्रकृतियों के बन्ध कितने प्रकार से होते हैं ? यह भी जानना आवश्यक है । अतः संक्षेप में यहाँ इस पर भी प्रकाश डाला जाता है | हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन व परिग्रह | चार कषाय ( क्रोध, मान, माया व लोभ) । पाँच इन्द्रियों के विषयों का सेवन । चौबीस साम्परायिक क्रियाएँ ( पच्चीस क्रियाओं में ईर्ष्या पथिक को छोड़कर) । कर्म प्रकृतियां : मूल आठ कर्म प्रकृतियाँ हैं जिनकी कुल १५८ प्रकृतियाँ हैं जो इस प्रकार हैं कर्मनाम श्रर्थ १. ज्ञानावरणीय - आत्मा की ज्ञान शक्ति को कुण्ठित करता है । जैसे सूर्य को मेघाच्छादित करता है । २. दर्शनावरणीय - आत्मा की देखने व अनुभव करने की शक्ति को जो कुण्ठित करता है । जैसे राजा के दर्शन में द्वारपाल बाधक होता है । वेदनीय Jain Educationa International - श्रात्मा की अव्याबाध सुख शान्ति को बाधित करता है । और लौकिक सुख-दुःख का संवेदन कराता है । जैसे शहद लगी या अफीम लगी तलवार को चखने से जिह्वा मीठे - कड़वे का आस्वादन करते स्वयं घायल हो जाती है । २ - तत्त्वार्थ सूत्र ६ / ३-५ । For Personal and Private Use Only प्रकृतियाँ ५ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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