Book Title: Punya Paap ki Avdharna
Author(s): Jashkaran Daga
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ पुण्य-पाप की अवधारणा ] पाप प्रकृति बान्धने के हेतु : पाप प्रकृतियाँ १८ प्रकार से बन्धती हैं । इन्हें अठारह पाप भी कहते हैं जो इस प्रकार हैं- ( १ ) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (६) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्यास्थान, ( झूठा कलंक लगाना), (१४) पैशुन्य ( चुगली), (१५) पर परिवाद, (१६) रति- अरति, (१७) माया-मृषावाद, (१८) मिथ्या दर्शन शल्य | पुण्य-पाप के कुछ विशिष्ट कर्मबंध व उनके फल : यह भलीभाँति समझने हेतु कि पुण्य-पाप के विविध कर्मों के कैसे परिणाम होते हैं, यहाँ कुछ विशिष्ट उदाहरण जो ग्रंथों में मिलते हैं, दिये जाते हैं । (अ) शुभ ( सुखदायक ) कर्म व उनके फल : (i) परोपकार या गुप्त दान से अनायास लक्ष्मी मिलती है । (ii) सुविधा दान से मेधावी होता है । [ १५७ (iii) रोगी, वृद्ध, ग्लान आदि की सेवा से शरीर निरोगी व स्वस्थ मिलता है | (iv) देव, गुरु, धर्म की विशिष्ट भक्ति से तीर्थंकर गोत्र का बन्ध होता है । (v) जीव दया से सुख - सामग्री मिलती है । (vi) वीतराग संयम से मोक्ष मिलता है जबकि सराग संयम देव गति का कारण होता है । (ब) अशुभ ( दुःखदायक ) कर्म व उनके फल : (i) हरे वृक्षों के काटने-कटाने से व पशुओं के वध से संतान नहीं होती है । (ii) गर्भ गलाने से या गिराने से बांझपना प्राप्त होता है । (iii) कंद मूल या कच्चे फलों को तोड़े या तुड़ावे तथा उनमें खुशी मनाते खावे तो गर्भ में ही मृत्यु को प्राप्त होता है या अल्पायुष्य वाला होता है । (iv) मधु मक्खियों के छाते जलाने या तुड़ाने से या देव, गुरु की निन्दा से प्राणी अंधे, बहरे व गूंगे होते हैं । (v) पर स्त्री पुरुष सेवन से पेट में पथरी जमती है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11