Book Title: Punya Paap ki Avdharna Author(s): Jashkaran Daga Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 5
________________ पुण्य-पाप की अवधारणा ] ४. मोहनीय ५. ६. ७. ८. आयुष्य नाम गोत्र अंतराय - आत्मा की यथार्थ दृष्टि एवं सम्यग् आचरण ( स्व स्वभाव प्रवर्तन) की शक्ति को कुण्ठित करता है । जैसे मदिरा सेवन व्यक्ति को बे भान कर देता है । - आत्मा की अमरत्व शक्ति को कुण्ठित कर योनि एवं आयुष्य का निर्धारण करता है । जैसे कैदी और जेल का दृष्टान्त । Jain Educationa International - आत्मा की अमूर्तित्व शक्ति को कुण्ठित करता है । यह व्यक्तित्व ( शरीर रचना सुन्दरअसुन्दर) का निर्माण करता है । जैसे चित्रकार का दृष्टान्त । - आत्मा की अगुरुलघु शक्ति को कुण्ठित करता है । यह प्राणी को ऊँचा-नीचा बनाता है । जाति, कुल, वंश आदि की अपेक्षा से । जैसे कुम्भकार विभिन्न प्रकार के कुम्भ बनाता है । - आत्मा की अनन्त शक्ति को कुण्ठित करता है । यह उपलब्धि में बाधक बनता है । जैसे अधिकारी द्वारा भुगतान का आदेश देने पर भी रोकड़िया भुगतान में रोक लगा देता है । कुल प्रकृतियाँ [ १५५ २८ For Personal and Private Use Only १०३ ५ इस प्रकार आठ कर्मों की कुल १५८ अवान्तर प्रकृतियाँ हैं । इनमें पुण्य एवं पाप की प्रकृतियों का विवरण नीचे दिया जाता है १५८ पुण्य प्रकृतियाँ - (१) वेदनीय की १ (साता वेदनीय), (२) श्रायुष्य ३ ( नरकायु छोड़), (३) नाम ३७ [ गति २ (देव, मनुष्य), पंचेन्द्रिय १, शरीर ५, अंगोपांग ३, वज्र ऋषभ संहनन १, सम चतुरस्र संस्थान १ शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श ४, श्रानुपूर्वी २ (देव, मनुष्य), अगुरु लघु १, पराघात १, उश्वास १, आता १, उद्योत ९, शुभ विहायोगति १ निर्माण १, तीर्थंकर १, त्रसदशक १० ] (४) गोत्र १ ( ऊँच) । इस प्रकार कुल ४२ पुण्य प्रकृतियाँ ( पुण्य भोगने की ) मानी गई हैं ।' किन्तु 'तत्त्वार्थ सूत्र' के अनुसार उक्त प्रकृतियों के अलावा कुछ मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ भी पुण्य प्रकृतियों में ली गई हैं। वे इस प्रकार हैं१ – नव तत्त्व से | www.jainelibrary.orgPage Navigation
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