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(i) क्रिया आवे |
[ कर्म सिद्धान्त
ईर्यापथिक - कषाय रहित जिसमें मात्र योगों के स्पंदन से
(ii) साम्परायिक - कषाय सहित जो क्रियाएँ की जावें, उससे आत्मा में आने वाला कर्मास्रव जो बन्ध रूप होता है ।"
इस साम्परायिक आस्रव के कारण कुल अड़तीस हैं जो निम्न प्रकार हैं :
(१-५)
(६-९)
( १०- १४)
( १५ - ३८)
पुण्य-पाप की सम्यग् अवधारणा हेतु कर्म प्रकृतियाँ, उनमें पुण्य व पाप प्रकृतियां कौन-कौन सी हैं ? तथा पुण्य व पाप प्रकृतियों के बन्ध कितने प्रकार से होते हैं ? यह भी जानना आवश्यक है । अतः संक्षेप में यहाँ इस पर भी प्रकाश डाला जाता है |
हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन व परिग्रह |
चार कषाय ( क्रोध, मान, माया व लोभ) ।
पाँच इन्द्रियों के विषयों का सेवन ।
चौबीस साम्परायिक क्रियाएँ ( पच्चीस क्रियाओं में ईर्ष्या पथिक को छोड़कर) ।
कर्म प्रकृतियां :
मूल आठ कर्म प्रकृतियाँ हैं जिनकी कुल १५८ प्रकृतियाँ हैं जो इस प्रकार हैं
कर्मनाम
श्रर्थ
१. ज्ञानावरणीय - आत्मा की ज्ञान शक्ति को कुण्ठित करता है । जैसे सूर्य को मेघाच्छादित करता है ।
२. दर्शनावरणीय - आत्मा की देखने व अनुभव करने की शक्ति को जो कुण्ठित करता है । जैसे राजा के दर्शन में द्वारपाल बाधक होता है ।
वेदनीय
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- श्रात्मा की अव्याबाध सुख शान्ति को बाधित करता है । और लौकिक सुख-दुःख का संवेदन कराता है । जैसे शहद लगी या अफीम लगी तलवार को चखने से जिह्वा मीठे - कड़वे का आस्वादन करते स्वयं घायल हो जाती है ।
२ - तत्त्वार्थ सूत्र ६ / ३-५ ।
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प्रकृतियाँ
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