Book Title: Punya Ek Tattvik Vivechan Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 5
________________ साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ इस प्रकार से पुण्य परम्परित मोक्ष का कारण है। सच्चे पुण्य को प्राप्त कर लेने के पश्चात् पाप में लौटकर नहीं आना पड़ता। इसलिए पं० आशाधर जी ने 'सागारधर्मामृत' में कहा है भावो हि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभः । तं दुष्यन्तमतो रक्षेद्वीरः समयभक्तितः ॥ -सागारधर्मामृत, ६५ पुण्य की यथार्थता जैनधर्म का महत्व निर्दिष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रतिपादन किया है कि सभी धर्मरूपी रत्नों में जिनधर्म श्रेष्ठ है। उत्तम जैनधर्म में धर्म का स्वरूप इस प्रकार है पुयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥ __ --भावपाहुद्ध, ८३ अर्थात् जिनेन्द्रदेव ने जिनशासन में पूजादिक को तथा व्रतों को पुण्य कहा है और मोह, क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम धर्म बताया है। पंछित जयचन्द्र जी छावड़ा इस की व्याख्या करते हुए कहते हैं-जिनमत मैं जिन भगवान ऐसे कह्या है जो पूजादिक विर्षे अर व्रतसहित होय सो तो पुण्य है, तहाँ पूजा अर आदि शब्द करि भक्ति-वन्दना, वैयावृत्य आदिक लेना । यह तो देव, गुरु, शास्त्र के अथि होय है बहुरि उपवास आदिक व्रत हैं जो शुभक्रिया हैं । इनि मैं आत्मा का राग सहित शुभ परिणाम है ताकरि पुण्यकर्म निपजे हैं तातें इनि 1 पुण्य कहे हैं, याका फल स्वर्गादिक भोग की प्राप्ति है । बहुरि मोह का क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम लेणे, तहाँ मिथ्यात्व तो अतत्त्वार्थश्रद्धान है, बहुरि क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह तो द्वेष प्रकृति हैं, बहुरि माया, लोभ, हास्य, रति, पुरुष, स्त्री, नपुंसक ये तीन विकार ऐसे सात प्रकृति रागरूप हैं । इनिके निमित्त तैं आत्मा का ज्ञान, दर्शन स्वभाव विकार सहित क्षोभ रूप चलाचल व्याकुल होय है, यातें इनिका विकारनि तें रहित होय तब शुद्ध दर्शन ज्ञान रूप निश्चय होय सो आत्मा का धर्म है; इस धर्म तें आत्मा के आगामी कर्म का तो आस्रव रुकि संवर होय है अर पूर्व बंधे कर्म तिनिकी निर्जरा होय है, संपूर्ण निर्जरा होय तब मोक्ष होय है, तथा एकदेश मोह के क्षोभ की हानि होय है तातें शुभ परिणाम कूँ भी उपचार करि धर्म कहिये है, अर जे केवल शुभ परिणाम ही . धर्म मांनि सन्तुष्ट हैं तिनिकै धर्म की प्राप्ति नांही है, यह जिनमत का उपदेश है। व्यवहार चारित्र : पुण्य 'अशुभ भावों से हटकर शुभ भावों में लगना' यह धर्म की प्रथम व्यावहारिक उत्थानिका है। आचार्य कुन्दकुन्द, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने 'असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्त' कह कर पुण्य को चारित्र रूप निरूपित किया है। 'चारित्तं खलु, धम्मो' चारित्र ही निश्चय से धर्म है। व्यवहार में भी चारित्र धर्म है और निश्चय में भी चारित्र धर्म है । अतः चारित्र धर्म है, इस में किसी को विवाद नहीं है। लोक में भी चरित्र से व्यक्ति परखा जाता है । 'सोना जानिए कसने से, आदमी जानिए बसने से।' कैसा पुण्य उपादेय है ? बिना श्रद्धान और ज्ञान के आचरण शुद्ध नहीं होता है। अतएव ज्ञानी के पुण्यमुलक कर्मों में तथा क्रियाओं में और अज्ञानी के कार्यों में महान अन्तर देखा जाता है। पुण्य की क्रियाओं को करते हुए पुण्य : एक तात्त्विक विवेचन : डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री | ३१ www.janPage Navigation
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