Book Title: Punya Ek Tattvik Vivechan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 1
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ AHARI " ::: पुण्य : एक तात्विक वि वे च न ::::: -डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री HHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHH: : E जीवन एक द्वन्द्व है। उस द्वन्द्व में दो विरोधी शक्तियाँ सक्रिय हैं-राग-विराग, पुण्य-पाप, शुभअशुभ, धर्म-अधर्म आदि । इन सबका सापेक्ष रूप से कथन किया जाता है, क्योंकि अपने आप में शुभ या अशुभ कुछ नहीं है । मनुष्य की वृत्तियाँ ही अपनी प्रवृत्तियों को शुभ-अशुभ कहकर निर्दिष्ट किया करती लिए इनको समझने के लिए नयों एवं सापेक्षता का ज्ञान आवश्यक है। जीवन की प्रत्येक क्रिय हमारे परिणामों से परिचालित होती है । भाव ही मनुष्य के पाप-पुण्य बन्ध के कारण तथा जीवन-मरणमोक्ष के कारण हैं। पाप-पुण्य आदि जिन कर्मों के उदय से उत्पन्न होते हैं, व्यवहार नथ से जीव उन शुभअशुभ कर्मों के उदय से होने वाले सुख-दुःख आदि का भोक्ता है । स्वामी कार्तिकेय का कथन है जीवो वि पावं अइ-तिव्व-कसाय-परिणदो णिच्चं । जीवो वि हवइ पुण्णं उवसम-भावेण संजुत्तो। -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा १६० अर्थात् जब यह जीव अत्यन्त तीव्र कषाय रूप परिणमन करता है तव पापरूप होता है और जब उपशमभावरूप परिणमन करता है तब पुण्यरूप होता है। दूसरे शब्दों में, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व आदि परिणामों से युक्त जीव पापी है, किन्तु औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र तथा क्षायिक सम्यक्त्व एवं क्षायिक चारित्ररूप परिणामों से युक्त पुण्यात्मा है। जब यह जीव पूर्ण वीतराग हो जाता है तो पुण्य और पाप दोनों से रहित हो जाता है। इस प्रकार भावों के तीन भेद किये गये हैं-अशुभ, शुभ और शुद्ध । (पाप का ही दसरा नाम रा नाम अशुभ है पुण्य का दूसरा नाम शुभ है तथा धर्म का दूसरा नाम शुद्ध है ।) आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं । असुहं च अट्टरुद्द सुहधम्मं जिणवरिंदेहिं । -भावपाहुड, ७६ अर्थात् जिनेन्द्रदेव ने भावों के तीन प्रकार कहे हैं-शुभ, अशुभ और शुद्ध । उनमें से आर्त्त-रौद्र ध्यान अशुभ हैं और धर्म-ध्यान शुभ है । शुद्ध भाव वाले तो सदा अपने शुद्ध स्वभाव में लीन रहते हैं। पंडित जयचन्द्र जी छावड़ा 'भावपाहुड' की भाषावचनिका (गाथा ११८) में कहते हैं पूर्वेकह्या जिनवचन तें पराङ मुख मिथ्यात्व सहित जीव तिस ते विपरीत कहिये जिन आज्ञा का श्रद्धानी सम्यग्दृष्टि जीव है सो विशुद्धभाव कुं प्राप्त भया शुभकर्म कू बांधै है जाते याकै सम्यक्त्व के T MLALILAHILIIIIIIILLLLLE पुण्य : एक तात्त्विक विवेचन | २७ rnational www.ja

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