Book Title: Punya Ek Tattvik Vivechan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 4
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जो पुण्य है वह पुण्य नहीं है, क्योंकि उससे कर्मबन्ध होता है और जीव विषय-वासनाओं में उलझ जाता है तथा परमपुरुषार्थ मोक्ष से हट जाता है । जो पुण्य को मिथ्यात्व कहकर उसका अनादर करते हैं वे वास्तव में भूल पर हैं। क्योंकि पूण्य मिथ्यात्व नहीं है। पूण्य के उदय से जो देवादिक के वैभव प्राप्त होते हैं उन वैभवों की आकांक्षा रखना और केवल इसलिए पुण्य को मोक्ष का कारण मानना मिथ्यात्व है। परन्तु 'पुण्यभाव मोक्ष का कारण है' ऐसा कथन करना व्यवहार है। क्योंकि पूण्य-पाप का भेद अघातिया कर्मों की दृष्टि से है, घातिया कर्म की अपेक्षा तो दोनों समान हैं। कषाय चाहे तीव्र हो अथवा मन्द हो वह कषाय ही है। 'समयसार' में भी अशुभकर्म को कुशील और शुभकर्म को सुशील कहा गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । किह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥ --समयसार, १४५ ___अर्थात् जो अशुभकर्म है वह तो निन्दनीय है, बुरा है इसलिए नहीं करने योग्य है। परन्तु शुभ कर्म पुण्यरूप है, सुहावना है, सुखदायक है इसलिए उपादेय है, यह कथन व्यवहार से है। परमार्थ से पुण्य और पाप दोनों संसार को बनाए रखने वाले हैं । अतएव कुशील और सुशील को एक ही वर्ग का कहा गया है। परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं है । आचार्य श्री ज्ञानसागर जी इस का विशेष अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं-आचार्यदेव ने यह ग्रन्थ ऋषि, मुनि, योगी लोग जो कि एकान्त निराकुलता के ग्राहक होते हैं उन्हीं को लक्ष्य में लेकर लिखा है । इसलिए लिखते हैं कि है साधो! तुम लोगों के लिए जिस प्रकार चोरी करना, झठ बोलना आदि कर्म हेय हैं, उसी प्रकार दान, पजा आदि कर्म भी तम् भी तुम्हारे लिए कर्तव्य नहीं हैं । क्योंकि उनको करते रहने पर भी निराकुलता प्राप्त नहीं हो सकती है । निराकुलता के लिए तो केवल आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। इससे यदि कोई गृहस्थ भी अपने लिए ऐसा ही समझ ले तो या तो उसे गृहस्थाश्रम छोड़ देना होगा, नहीं तो यह मनमानी करके कुगति का पात्र बनेगा। अतः उसे तो चोरी-जारी आदि कुकर्म से दूर रहकर परिश्रमशीलता, परोपकार, दान, पूजा, आदि सत्कर्म करते हुए अपने गृहस्थ जीवन को निभाना चाहिए। पं० बनारसीदास जी नाटक समयसार में कहते हैं मोह को विलास यह जगत को वास में तो, जगत सों शून्य पाप पुण्य अन्ध कूप है। पाप किने कौन किये करे करिहै सो कौन, क्रिया को विचार सुपने की दौर धूप है ।। ६१॥ एक और पं० बनारसीदास जी जहाँ पाप-पुण्य को अन्धकूप बतलाते हैं वहीं 'बनारसीविलास' में पुण्य का महत्व बतलाते हुए कहते हैं पूरव करम दहै सरवज्ञ पद लहै; गहै पुण्यपंथ फिर पाप में न आवना । करुना की कला जागै कठिन कषाय भागै, ___ लागै दान-शील-तप सफल सुहावना ॥ पावै भवसिंधु तट खोले मोक्षद्वार पट, शर्म साथ धर्म की धरा में करै भावना। एतै सब काज करै अलख को अंग धरै, चेरी चिदानन्द की अकेली एक भावना ॥८६ ।। ३० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य R www.jainell

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