Book Title: Pt Todarmalji aur Gommatasara Author(s): Narendra Bhisikar Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 2
________________ पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार १५५ १. जीवादि तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। २. जीवादि पदार्थों का समीचीन ज्ञान सो सम्यग्ज्ञान है। ३. सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक विषय और कषायों से उदासीन वृत्ति धारण कर हेय तत्त्वों का त्याग तथा उपदेय तत्त्वों का ग्रहण इसको सम्यक्चारित्र कहा है। अज्ञानपूर्वक क्रियाकाण्ड को सम्यक्चारित्र नहीं कहा। जीव और कर्म इनका जो अनादि सम्बन्ध है वह संसार है। जीव और कर्म इनका विशेष भेदविज्ञान करके इनके सम्बन्ध का अभाव होना वह मोक्ष है । इस ग्रन्थ में जीव और कर्म का विशेष स्वरूप कहा है। उससे भेदविज्ञान होकर सम्यग्दर्शनादिक की प्राप्ति होती है, इस प्रयोजन से इस ग्रन्थ का अभ्यास अवश्य करने की प्रेरणा की है। इस ग्रन्थ के अभ्यास से चारों अनुयोगों की सार्थकता कैसी होती है इसका सुन्दर विवेचन श्रीमान् पं. टोडरमलजी ने किया है। १. प्रश्न—प्रथमानुयोग का पक्षपाती शिष्य प्रश्न करता है कि--प्रथमानुयोग सम्बन्धी कथापुराणों का वाचन करके मुमुक्षु मन्दबुद्धि जीवों की बुद्धि पापों से परावृत्त होकर धर्ममार्ग के प्रति प्रवृत्त होती है । इसलिए जीव-कर्म का स्वरूप कथन करनेवाले इस सूक्ष्म तथा गहन ग्रन्थ का मन्दबुद्धि जनों के लिए क्या प्रयोजन है ? समाधान—प्रथमानुयोग सम्बन्धी कथा-पुराणों को सुनकर कोई क्वचित् कदाचित् निकट भव्य जीव ही पापों से भयभीत तथा परावृत्त होकर धर्म में अनुराग करते हैं। उनके उदासीन वृत्ति में बहुत शिथिलता पाई जाती है। लेकिन् पुण्य-पाप के विशेष कारण-कार्य का, जीवादि तत्त्वों का विशेष ज्ञान होने से पापों से निवृत्ति तथा धर्म में प्रवृत्ति इन दोनों कार्यों में दृढता-निश्चलता पाई जाती है इसलिए इस ग्रन्थ का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। २.प्रश्न-चरणानुयोग का पक्षपाती शिष्य प्रश्न करता है कि केवल जीव-कर्म का स्वरूप जानने से मोक्ष सिद्धि कैसे हो सकती है ? मोक्ष सिद्धि के लिये तो हिंसादिक का त्याग, व्रतों का पालन, उपवासादि तप, देव पूजा, नामस्मरण, दान, त्याग और संयम रूप उदासीन वृत्ति इनका उपदेश करने वाले चरणानुयोग शास्त्रों का उपदेश देना आवश्यक है ? समाधान हे स्थूल बुद्धि ! व्रतादिक शुभ कार्य तो करने योग्य अवश्य है। लेकिन् सम्यग्दर्शन के विना व्रतादिक सब क्रिया अंक विना बिंदी के समान है, निरर्थक है। जीवादि त्तत्त्वों का स्वरूप जाने विना सम्यक्त्व होना वांझ पुत्र के समान असंभव है। इसलिये जीवादि पदार्थों का ज्ञान करने के लिये इस ग्रन्य का अभ्यास अवश्य करना चाहिये, ऐसी प्रेरणा की है। व्रतादिक शुभ कार्यों से केवल पुण्यवन्ध होता है, इनसे मोक्ष कार्य की सिद्धि नहीं होती। लेकिन जीवादि तत्त्वों का स्वरूप जानना यह भी प्रधान शुभ कार्य है उससे सातिशय पुण्यबन्ध होता है। व्रततपादिक में ज्ञानाभ्यास की ही प्रधानता होती है। ज्ञानपूर्वक हिंसादिकों का त्याग कर व्रत धारण करने वाला ही व्रती कहलाता है। अन्तरंग तपों में स्वाध्याय नाम का अन्तरंगतप प्रधान है । ज्ञान पूर्वक तप ही संवर निर्जरा का कारण कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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