Book Title: Pt Todarmalji aur Gommatasara
Author(s): Narendra Bhisikar
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार पं. नरेंद्रकुमार भिसीकर, न्यायतीर्थ, कारंजा यह 'गोम्मटसार' ग्रंथ करणानुयोग में धवला षखंडागम सिद्धांत शास्त्रों का मंथन करके निकाला हुवा नवनीत सार है । इसका दूसरा नाम 'पंचसंग्रह ' भी रखा गया है । इसकी मूल गाथा सूत्र रचना सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य श्री नेमिचंद्र इनके द्वारा रचित है। इस ग्रंथपर दो संस्कृत टीकाएं रची गई हैं। पहली संस्कृत टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' श्रीमान् पं. केशववी द्वारा रची गई है। दूसरी ‘मंदप्रबोधिनी' टीका श्रीमान् आचार्य अभयचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती द्वारा रची गई है। ___ पहले संस्कृत टीका का शब्दशः हिंदी भाषानुवाद श्रीमान् पं. टोडरमलजी द्वारा किया गया है, जिसका नाम 'सम्यग्ज्ञान-चंद्रिका' रखा गया है। इस टीका के प्रारंभ में श्रीमान् पं. टोडरमलजी ने जो पीठिका लिखी है उसी का संक्षेपसार इस प्रबंध में संगृहीत किया है। कालदोष से दिनप्रतिदिन बुद्धी का क्षयोपशम मंद होता जा रहा है। जिनको संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं तथा अर्थसंदृष्टि अधिकारगत सूक्ष्म गणित विषय में जिनका प्रवेश होना कठीण है उन मंदबुद्धि मुमुक्षुजनों के लिये अंकसंदृष्टि द्वारा गणित के करण सूत्रों को सुलभ और सुगम करने का श्रीमान् पं. टोडरमलजी ने जो प्रयत्न किया है वह महान् उपकार है । १. टीका रचना का मुख्य प्रयोजन श्रीमान् पं. टोडरमलजी ने सर्वप्रथम मुमुक्षु भव्य जीवों को इस ग्रंथ का सूक्ष्म अध्ययन करने की प्रेरणा की है। प्रत्येक जीव दुःख से आकुलित होता हुआ सुख की अभिलाषा कर रहा है । आत्मा का हित मोक्ष है। मोक्ष के विना अन्य जो परसंयोगजनित है वह संसार है, विनश्वर है, दुःखमय है । मोक्ष आत्मा का निजस्वभाव है, अविनाशी है, अनंतसुखमय है। मोक्ष प्राप्ती का उपाय-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इनकी एकता तथा पूर्णता है। इनकी प्राप्ति जीवादिक सात तत्वों का यथार्थ श्रद्धान तथा समीचीन ज्ञान होने से होती है जीवादिक का स्वरूप जाने विना श्रद्धान होना आकाशफूल के समान असंभव है । 'आगमचेठा तदो जेठ्ठा' सम्यग्दर्शन के प्राप्ति के लिये आगमज्ञान इस पंचम काल में सर्वज्ञ के अभाव में प्रधान कारण माना गया है । १५४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार १५५ १. जीवादि तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। २. जीवादि पदार्थों का समीचीन ज्ञान सो सम्यग्ज्ञान है। ३. सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक विषय और कषायों से उदासीन वृत्ति धारण कर हेय तत्त्वों का त्याग तथा उपदेय तत्त्वों का ग्रहण इसको सम्यक्चारित्र कहा है। अज्ञानपूर्वक क्रियाकाण्ड को सम्यक्चारित्र नहीं कहा। जीव और कर्म इनका जो अनादि सम्बन्ध है वह संसार है। जीव और कर्म इनका विशेष भेदविज्ञान करके इनके सम्बन्ध का अभाव होना वह मोक्ष है । इस ग्रन्थ में जीव और कर्म का विशेष स्वरूप कहा है। उससे भेदविज्ञान होकर सम्यग्दर्शनादिक की प्राप्ति होती है, इस प्रयोजन से इस ग्रन्थ का अभ्यास अवश्य करने की प्रेरणा की है। इस ग्रन्थ के अभ्यास से चारों अनुयोगों की सार्थकता कैसी होती है इसका सुन्दर विवेचन श्रीमान् पं. टोडरमलजी ने किया है। १. प्रश्न—प्रथमानुयोग का पक्षपाती शिष्य प्रश्न करता है कि--प्रथमानुयोग सम्बन्धी कथापुराणों का वाचन करके मुमुक्षु मन्दबुद्धि जीवों की बुद्धि पापों से परावृत्त होकर धर्ममार्ग के प्रति प्रवृत्त होती है । इसलिए जीव-कर्म का स्वरूप कथन करनेवाले इस सूक्ष्म तथा गहन ग्रन्थ का मन्दबुद्धि जनों के लिए क्या प्रयोजन है ? समाधान—प्रथमानुयोग सम्बन्धी कथा-पुराणों को सुनकर कोई क्वचित् कदाचित् निकट भव्य जीव ही पापों से भयभीत तथा परावृत्त होकर धर्म में अनुराग करते हैं। उनके उदासीन वृत्ति में बहुत शिथिलता पाई जाती है। लेकिन् पुण्य-पाप के विशेष कारण-कार्य का, जीवादि तत्त्वों का विशेष ज्ञान होने से पापों से निवृत्ति तथा धर्म में प्रवृत्ति इन दोनों कार्यों में दृढता-निश्चलता पाई जाती है इसलिए इस ग्रन्थ का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। २.प्रश्न-चरणानुयोग का पक्षपाती शिष्य प्रश्न करता है कि केवल जीव-कर्म का स्वरूप जानने से मोक्ष सिद्धि कैसे हो सकती है ? मोक्ष सिद्धि के लिये तो हिंसादिक का त्याग, व्रतों का पालन, उपवासादि तप, देव पूजा, नामस्मरण, दान, त्याग और संयम रूप उदासीन वृत्ति इनका उपदेश करने वाले चरणानुयोग शास्त्रों का उपदेश देना आवश्यक है ? समाधान हे स्थूल बुद्धि ! व्रतादिक शुभ कार्य तो करने योग्य अवश्य है। लेकिन् सम्यग्दर्शन के विना व्रतादिक सब क्रिया अंक विना बिंदी के समान है, निरर्थक है। जीवादि त्तत्त्वों का स्वरूप जाने विना सम्यक्त्व होना वांझ पुत्र के समान असंभव है। इसलिये जीवादि पदार्थों का ज्ञान करने के लिये इस ग्रन्य का अभ्यास अवश्य करना चाहिये, ऐसी प्रेरणा की है। व्रतादिक शुभ कार्यों से केवल पुण्यवन्ध होता है, इनसे मोक्ष कार्य की सिद्धि नहीं होती। लेकिन जीवादि तत्त्वों का स्वरूप जानना यह भी प्रधान शुभ कार्य है उससे सातिशय पुण्यबन्ध होता है। व्रततपादिक में ज्ञानाभ्यास की ही प्रधानता होती है। ज्ञानपूर्वक हिंसादिकों का त्याग कर व्रत धारण करने वाला ही व्रती कहलाता है। अन्तरंग तपों में स्वाध्याय नाम का अन्तरंगतप प्रधान है । ज्ञान पूर्वक तप ही संवर निर्जरा का कारण कहा है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ विना ज्ञान के कुलक्रमागत केवल बाह्य देखादेखी देव-गुरु भक्ति भी अल्प फल देनेवाली होती है । विशेष कार्यकारी नहीं है । ज्ञान के विना उदासीन वृत्ति- त्याग-संयमवृत्ति केवल पुण्यफल को देने वाली होती है । उससे मोक्ष कार्य की सिद्धि नहीं होती । महामुनी, संयमी जनों के ध्यान व अध्ययन ये दो ही मुख्य कार्य कहे गये हैं । इसलिये इस शास्त्र का अध्ययन कर जीव-कर्म का स्वरूप समझ कर अपने आत्म स्वरूप का ध्यान करना चाहिये । प्रश्न- यहां शिष्य प्रश्न पूछता है कि कोई जीव बहुत शास्त्रोंका अध्ययन तो करते हैं, लेकिन वे विषयादिकों से उदासीन-त्याग वृत्ति धारण करनेवाले नहीं होते है। उनका शास्त्र का अध्ययन कार्यकारी है कि नहीं? १ यदि है, तो संत-महंत पुरुष विषयादिकों का त्याग कर क्यों व्यर्थ कायक्लेशादि तप करते हैं ? २ यदि नहीं, तो ज्ञानाभ्यास का महिमा क्या रहा ? समाधान-शास्त्राभ्यासी दो प्रकार के पाये जाते हैं। १ लोभार्थी २ धर्मार्थी १ अंतरंग धर्मानुराग बिना जो केवल ख्याति-पूजा-लाभ के लिये शास्त्राभ्यास करते है उनका शास्त्राभ्यास कार्यकारी नही है । वे लोभार्थी आत्मघाती महापापी है। २ जो अंतरंग धर्मानुरागपूर्वक आत्महित के लिये शास्त्राभ्यास करते हैं, वे योग्य काललब्धि पूर्वक विषयादिकों का त्याग अवश्य करते ही हैं । उनका ज्ञानाभ्यास कार्यकारी ही है । जो कदाचित् पूर्व कर्मोदय वश विषयादिकों का त्याग करने में असमर्थ है तथापि वे अपने असंयमवृत्ति की सदैव आत्मनिंदा गर्दा करते हैं । संयम और त्याग का नितांत आदर करते हैं उनका ज्ञानाभ्यास भी कार्यकारी ही है। असंयत गुणस्थान में विषयादिक का त्याग न होते हुये भी सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान पूर्वक (स्वरूपाचरण चारित्ररूप) स्वरूप स्वभाव का निरंतर भान ( लक्ष्य ) होने से मोक्षमार्गपना नियम से पाया जाता है। प्रश्न-जो धर्मार्थी है, शास्त्राभ्यासी है, उसको विषयादिकों का त्याग होता नहीं यह कैसे संभव है ? क्यों कि विषयों का सेवन तो जीव विषयों के अनुराग परिणामपूर्वक ही करता है। अपने परिणाम तो अपने स्वाधीन है ? समाधान-परिणाम दो प्रकार के होते है। १. बुद्धिपूर्वक, २. अबुद्धिपूर्वक । १. अपने अभिप्रायपूर्वक-विषयानुरागपूर्वक जो परिणाम होते हैं वे बुद्धिपूर्वक परिणाम हैं । २. जो विना अभिप्राय के पूर्वकर्मोदयवश होते हैं उनको अबुद्धिपूर्वक परिणाम कहते हैं । जैसे सामायिक करते समय धर्मात्मा के जो शुभ परिणाम होते है वे तो बुद्धिपूर्वक है और उसी समय विना इच्छा के जो स्वयमेव अशुभ परिणाम होते है वे अबुद्धिपूर्वक है। उसी प्रकार जो ज्ञानाभ्यासी है उसका अभिप्राय तो विषयादिक का त्यागरूप-वीतरागभावरूप ही होता है वह तो बुद्धिपूर्वक है। और चारित्रमोह के उदयते जो सराग प्रवृत्ति होती है वह अबुद्धिपूर्वक है । अभिप्रायविना कर्मोदयवश जो सराग Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार भाव होते हैं उससे विषयादिक में उनकी प्रवृत्ति देखी जाती है, उस बाह्य प्रवृत्ति का कारण यद्यपि उनका योग-उपयोग परिणाम होता है । तथापि उनमें उनकी रुचि-अभिप्राय-या धर्मबुद्धि नहीं होने से वे अबुद्धिपूर्वक कहे जाते हैं। प्रश्न-जो ऐसा है तो कोई भी विषयादिकों को सेवेंगे और कहेंगे कि हमारा उदयाधीन कार्य हो रहा है। समाधान-केवल कहने मात्र से कार्यसिद्धि होती नहीं। सिद्धि तो अभिप्राय के अनुसार ही होती है । इसलिये जैन शास्त्र के अभ्यास से अपने अभिप्राय को सम्यक्प करना चाहिये। अंतरंग में विषयादि के सेवन का अभिप्राय रखते हुये धर्मार्थी नाम नहीं पा सकता है। ३ प्रश्न-अब द्रव्यानुयोग का पक्षपाती शिष्य पूछता है कि जीव और कर्मके विशेष स्वरूप समझने से अनेक विकल्प तरंग उत्पन्न होते है, उससे कार्यसिद्धि कैसी होगी ? अपने शुद्धस्वरूप का अनुभवन करने का, स्व-पर का भेदविज्ञान का ही उपदेश कार्यकारी होगा ? । समाधान हे सूक्ष्माभासबुद्धि ! आपका कहना तो ठीक है, लेकिन अपनी जघन्य अवस्था का भी ख्याल रखना चाहिये। यदि स्वरूपानुभवन में या भेदविज्ञान में निरंतर उपयोग स्थिर होता है तो नाना विकल्प करने की क्या जरूरत है। अपने स्वरूपानंद सुधारस में ही मस्त रहना चाहिये । परंतु यदि जघन्य अवस्था में उपयोग निरंतर स्थिर नहीं रहता है, उपयोग अनेक निरंतर अवलंबन को चाहता है तो उस समय गुणस्थानादि विशेष जानने का अभ्यास करना उचित है । अध्यात्मशास्त्र का अभ्यास विशेष कार्यकारी है सो तो युक्त ही है। परंतु भेदविज्ञान होने के लिये स्व-पर का (जीव और कर्म का) विशेष स्वरूप जानना आवश्यक है। इसलिये इस शास्त्र का अभ्यास करना चाहिये । “सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् ”—सामान्य शास्त्र से विशेष शास्त्र बलवान् होता है। प्रश्न-अध्यात्म शास्त्र में तो गुणस्थानादि विशेष रहित शुद्ध स्वरूप का अनुभवन करने का उपदेश है, और इस ग्रंथ में तो गुणस्थानादि सहित जीव का वर्णन किया है। इसलिये अध्यात्म शास्त्र और इस शास्त्र में तो विरोध दीखता है । समाधान-नय के २ प्रकार हैं । १ निश्चय, २ व्यवहार । १ निश्चयनय से जीव का स्वरूप गुणस्थानादि विशेष रहित शुद्ध अभेद वस्तुमात्र एकही प्रकार है। २ व्यवहारनय से गुणस्थानादि विशेष रूप अनेक प्रकार हैं । जो जीव सर्वोत्कृष्ट अभेद स्वरूप एक स्वभावभाव का ही अनुभव करते हैं उनके लिये तो शुद्ध निश्चयनय ही कार्यकारी है । परंतु जो स्वानुभव दशा को प्राप्त नहीं है, स्वानुभव-निर्विकल्प दशा से च्युत होकर सविकल्प दशा को प्राप्त हुए है ऐसे अनुत्कृष्ट-अशुद्ध-भाव में स्थित है उनके लिए व्यवहारनय शास्त्र ही प्रयोजनवान् है। समयसार में कहा है Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ सुद्धो सुद्धादेसो णायचो परमभावदरसीहि । ववहारदेसिदो पुण जे दु अपरमें ट्ठिदा भावे ॥ यदि परिणाम स्वरूपानुभव में भी प्रवृत्त होते नहीं और विकल्प समझकर गुणस्थानादि विशेष स्वरूप का भी विचार न किया जाय, तो 'इतो भ्रष्टः, ततो भ्रष्टः ' होकर अशुभोपयोग में प्रवृत्ति करनेवाला अपना अकल्याण ही करेगा। अपरंच, वेदांत आदि शास्त्राभासों में भी जीव का स्वरूप शुद्ध कहा है। उसके यथार्थ-अयथार्थ का निर्णय विशेष स्वरूप जाने विना कैसा सम्भव है ? इसलिए इस ग्रन्थ का अभ्यास करना चाहिये । प्रश्न—करणानुयोग शास्त्र द्वारा जीव के विशेष स्वरूप का अभ्यास करनेवाला भी द्रव्यलिंगी मुनि अध्यात्मश्रद्धान विना संसार में ही भटकता है, परंतु अध्यात्म शास्त्र के अनुसार अल्प श्रद्धान करने वाले तिर्यच को भी सम्यक्त्व होता है। तुष माष भिन्न इतने ही श्रद्धान से शिव भूति मुनि को मुक्ति की प्राप्ति हुई है। इसलिए प्रयोजन मात्र अध्यात्म शास्त्र का ही उपदेश देना कार्यकारी है। समाधान-जो द्रव्यलिंगी करणानुयोग शास्त्र द्वारा विशेष स्वरूप जानता है उसको अध्यात्मशास्त्र का भी ज्ञान यथार्थ हो सकता है। परंतु वह मिथ्यात्व के उदय से उस ज्ञान का उपयोग अयथार्थ करेगा तो उसके लिए शास्त्र क्या करेगा ? करणानुयोग शास्त्र तथा अध्यात्म शास्त्र इनमें तो परस्पर कुछ भी विरोध नहीं है। दोनों शास्त्रों में आत्मा के रागादिक भाव कर्म निमित्त से उत्पन्न होते है ऐसा कहा है। द्रव्यलिंगी उनका स्वयं कर्ता होकर प्रवर्तता है। शरीराश्रित सर्व शुभ-अशुभ क्रिया पुद्गलमय कही है। द्रव्यलिंगी उनको अपनी मानकर उनमें हेय-उपादेय बुद्धि करता है। सर्व ही शुभ-अशुभ भाव आस्रव-बन्ध के कारण कहे है। द्रव्यलिंगी शुभ क्रिया को संवर-निर्जर-मोक्ष का कारण मानता है। शुद्ध भाव ही संवर-निर्जरा-मोक्ष के कारण कहे है। उनको तो द्रव्यलिंगी पहचानता ही नहीं । तथा तिर्यंच को अल्प ज्ञान से भी जो सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तथा शिवभूति मुनि को अल्प ज्ञान से भी जो केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई है, उसमें भी उनके पूर्व जन्म के संस्कार कारण होते हैं। किसी विशेष जीव को अल्प ज्ञान से कार्य सिद्धि हुई, इसलिए सर्व जीवों को होगी यह कोई नियम नहीं है। किसी को दैव वश विना व्यापार करते हुये धन मिला, तो सर्व जीवों ने व्यापार करना छोड देना यह कोई राजमार्ग नहीं है। राजमार्ग तो यही है-इस ग्रन्थ के द्वारा नाना प्रकार जीव का विशेष स्वरूप जान कर आत्मस्वरूप का यथार्थ निर्णय करने से ही कार्य सिद्धि होगी। शास्त्राभ्यास की महिमा अपार है। इसीसे आत्मानुभव दशा प्राप्त होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है । यह तो परोक्षफल है। शास्त्राभ्यास का साक्षात् फल--क्रोधादि कषायों की मंदता होती है । इंद्रियों की उच्छृखल विषय प्रवृत्ति रुकती है । अति चंपल मन भी एकाग्र होता है। हिंसादि पंच पापों में प्रवृत्ति होती नहीं। हेय-उपादेय की पहचान होकर जीव आत्मज्ञान के सन्मुख होता है । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार १५९ शास्त्राभ्यास का समय पाना महान् दुर्लभ है । एकेंद्रिय से असंज्ञीपर्यंत तो मन का ही अभाव है। संज्ञी होकर भी तिथंच गति में तो विवेक रहता नहीं । नरक गति में वेदना पीडित अवस्था रहती है। देवगति में विषयासक्त अवस्था रहती है। मनुष्यगति मिलना अत्यंत दुर्लभ है। उसमें भी योग्य सहवास, उच्चकुल, पूर्ण आयु, इंद्रियों की समर्थता, निरोगता, सत्संगति, धर्म की अभिरुचि, बुद्धि का क्षयोपशम इन सर्व साधन-सामग्री का मिलना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इसलिये इस शास्त्र का जैसे बने वैसे अभ्यास करना कल्याणकारी है। २. ग्रंथ विषय इस गोम्मटसार शास्त्र के मुख्य दो अधिकार हैं। १ जीव कांड, २ कर्म कांड । १ जीवकांड के मुख्य २२ अधिकार हैं । १ गुणस्थान अधिकार-इसमें (मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थानों में जीवके परिणाम उत्तरोत्तर कैसे विशुद्ध होते हैं इसका वर्णन किया है। प्रमाद का वर्णन करते समय संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट और समुद्दिष्ट का विशेष निरूपण किया है। सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में अधःकरण अवस्था में जो परिणामों की अनुकृष्टि रचना होती है उसका विशेष वर्णन किया गया है । कर्म प्रकृति के अनुभाग की अपेक्षा से अविभाग प्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, गुणहानि, नानागुणहानि, पूर्वस्पर्द्धक, अपूर्व स्पर्द्धक, बादरकृष्टि, सूक्ष्मकृष्टि, का विशेष निरूपण किया गया है। नव केवललब्धियों का, गुणश्रेणी निर्जरा के १२ स्थानों का विशेष वर्णन किया है । अन्त में अन्यमत में माने गये मोक्ष के अन्यथा स्वरूप का निराकरण करके मोक्ष का यथार्थ स्वरूप का निरूपण किया है। २ जीवसमास अधिकार-दूसरे अधिकार में १४ जीव समासों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। जीव समासों के स्थानों का वर्णन करते हुये १ से लेकर १९ स्थान तक जीव के भेदों का वर्णन करके ९८ जीव समास स्थानों का वर्णन किया है। शंखावर्तादि योनि के तीन प्रकार, सन्मूर्च्छनादि जन्मभेद पूर्वक योनि के नव प्रकार, उनके स्वामी इनका वर्णन करके ८४ लाख योनि का वर्णन किया है। अवगाहना का वर्णन करते हुये सूक्ष्म निगोदी अपर्याप्त की जघन्य अवगाहना से लेकर संज्ञी पंचेद्रिय पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना तक ४२ अवगाहना स्थानों का वर्णन किया है। अवगाहना भेद जानने के लिये चतुःस्थानपतित-षट्स्थानपतित हानिवृद्धि का वर्णन किया है। अवगाहना भेद जानने के लिये मत्स्यरचना यंत्र बतलाया गया है। कुलभदों का वर्णन करते हुये एकसौ साडे सत्याण्णव लाख कुल कोटि का वर्णन किया है। ३. पर्याप्ति अधिकार पहले ‘मान ' का वर्णन किया है। मान के मुख्य दो भेद है। १ लौकिक, २ अलौकिक । अलौकिक मान में द्रव्यमान के दो भेद हैं। १ संख्यामान, २ उपमा मान । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ १ संख्यामान के — संख्यात - असंख्यात - अनंत आदि २१ भेदों का वर्णन है । संख्यामान में पण्णट्टी, बादाल, एकठ्ठी, आदि संख्याओं का वर्णन है । १६० २ उपमामान मे—पल्य आदि आठ भेदो का वर्णन है । व्यवहार पल्य के रोमों की संख्या निकालने का वर्णन है। तीन प्रकार के अंगुल का वर्णन है । उद्धारपल्य से द्वीप समुद्रों की संख्या निकालने का वर्णन है । अद्धापल्य से आयुका प्रमाण जाना जाता है सूच्यंगुल - प्रतरांगुल - घनांगुल-जगत्श्रेणी, जगत्प्रतर- जगत् घन से लोक का प्रमाण जाना जाता है । इसके बाद पर्याप्ति प्ररूपणा का वर्णन किया है। छह पर्याप्तिओं का स्वरूप, उनका प्रारंभ तथा पूर्ण होने का काल, उनके स्वामी इनका वर्णन है । लब्ध्य पर्याप्तक का लक्षण कह कर निरंतर क्षुद्रभवों का वर्णन करके प्रसंगवश लौकिक मान में प्रमाण राशि, फलराशि, इच्छाराशि आदि त्रैराशिक गणितका वर्णन है । सयोगी जिनको भी अपर्याप्तपना का संभवने का तथा लब्ध्य पर्याप्तक, निर्वृत्त्य पर्याप्तक, पर्याप्तक इनके यथासंभव गुणस्थानों का बर्णन है । ४. प्राण- प्ररूपणा इस अधिकार में प्राणों का लक्षण-भेद-कारण और उनके स्वामी का वर्णन किया है । ५ संज्ञा - प्ररूपणा – आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा इन चार संज्ञाओं का वर्णन करके उनके कारण, उनके स्वामी इनका वर्णन किया है । मार्गणा महाधिकार में प्रथम सांतर जीव, एक जीव अपेक्षा से वर्णन कर के, तथा किया है । मार्गणा के गुणस्थान अंतराल का तत्वार्थसूत्र टीका के अनुसार नाना अपेक्षा मार्गणाओं के काल का अंतर का वर्णन ६ गति मार्गणा - अधिकार --चार गति का वर्णन कर के पांच प्रकार के तिर्यंचों का, चार प्रकार के मनुष्यों का तथा पंचम सिद्धगति का वर्णन है । सात प्रकार के नारकी जीवों का तथा चार प्रकार के जीवों का उनकी संख्या का वर्णन किया है । प्रसंगवश पर्याप्त मनुष्य जीवों की संख्या निकालने के लिये 6 कटपय पुरस्थवर्णैः' इत्यादि सूत्रद्वारा अंक संख्या को लिपिबद्ध करने की रीति बतलाई गई है । ७ इंद्रिय मार्गणा – अधिकार - में लब्धि और उपयोय रूप भावेंद्रिय का वर्णन करके बाह्य और अभ्यंतर रूप निर्वृत्ति और उपकरण के चार प्रकार के द्रव्येंद्रियों का वर्णन किया है । इंद्रियों के स्वामी इंद्रियों का आकार, उनकी अवगाहना का वर्णन करके अतींद्रिय जीवों का वर्णन किया है । ८ कायमार्गणा - अधिकार - में पांच स्थावर काय और एक त्रसकाय जीवों का उनकी शरीर अवगाहना का वर्णन है । वनस्पति के साधारण तथा प्रत्येक इन दो भेदों का वर्णन करके प्रत्येक वनस्पति में जिस प्रकार सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित भेद है उसी प्रकार त्रस जीवों के शरीर में ष्ठितपने का वर्णन किया है । प्रतिष्ठित-प्रति Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार ९ योगमार्गणा-अधिकार-में योग का लक्षण बतला कर मन-वचन-काय रूप तीन योगों का तथा उनके प्रभेदों का वर्णन किया है। सत्य-असत्य-उभय-अनुभय भेद से मनोयोग और वचन-योग चार चार प्रकार का है। सत्य वचन के दश भेदों का तथा आमंत्रणी-आज्ञापिनी आदि अनुभय वचनों का वर्णन किया है। केवली को मन-वचन-योग संभवने का वर्णन है। काययोग के ७ भदों का वर्णन है। मिश्रयोग होने का विधान, उनका काल इनका वर्णन है। युगपत् योगों की प्रवृत्ति होने का विधान वर्णन किया है। १० वेदमार्गणा-अधिकार-भाव-द्रव्य भेद से वेद दो प्रकार का है। उनमें कहीं पर समानता तथा असमानता पाई जाती है। वेदों के कारण को कहकर ब्रह्मचर्य अंगीकार करने का वर्णन किया है। तीनों वेदों का निरुक्ति अर्थ बतला कर अपगत वेदी जीवों का वर्णन है । ११ कषाय मार्गणा-अधिकार-अनंतानुबन्धी आदि कषायों का सम्यक्त्व आदि जीव के गुणों का घात करने का वर्णन किया है। कषाय के शक्ति अपेक्षा से ४ भेद, लेश्या अपेक्षा १४ भेद, तथा आयुबन्ध-अबन्ध अपेक्षा २० भेदों का वर्णन है । १२ ज्ञान मार्गणा अधिकार में मतिज्ञान आदि पांच सम्यग्ज्ञानों का, तीन मिथ्याज्ञानों का तथा मिश्रज्ञानों का वर्णन है । मतिज्ञान में अवग्रहादि भेदोंका, वर्णन है। व्यंजनावग्रह चक्षु और मन के बिना चार इंद्रियों से होता है, तथा उसमें ईहादिक ज्ञान नहीं होते हैं। बहु-बहुविध आदि १२ भेदों से मतिज्ञान के ३३६ भेदों का वर्णन किया है । भाव श्रुतज्ञान में पर्याय-पर्यायसमास आदि भेद से २० प्रकार पाये जाते हैं। जघन्य ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण बतलाकर उनमें क्रम से षट्स्थानपतित वृद्धि का क्रम बतलाया है। द्रव्यश्रुतज्ञान में द्वादशांग पदों का, प्रकीर्णकों के अक्षरों की संख्या का वर्णन है । प्रसंगवश तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि होने के विधान का, तथा अंतिम तीर्थंकर वर्धमान स्वामि के समय ३६३ कुवादी निर्माण हुये उन मिथ्या मतों का वर्णन करके अनेकांत सप्तभंगी का वर्णन किया है। १३ संयम मार्गणा-अधिकार में संयम के भेदों का वर्णन कर के ग्यारह प्रतिमा, संयम के २८ भेद इनका वर्णन है। १४ दर्शन मार्गणा-अधिकार में चक्षुदर्शन आदि चार प्रकार के दर्शनों का वर्णन करके शक्ति चक्षुदर्शनी, व्यक्त चक्षुर्दर्शनी, और अवधि केवल अचक्षुर्दर्शनी जीवों की संख्याप्रमाण का वर्णन है । १५ लेश्या मार्गणा-अधिकार में भाव लेश्या और द्रव्य लेश्या का वर्णन है। लेश्याओं का वर्णन १६ अधिकार में किया है। (१) छह लेश्याओं का नाम, (२) छह द्रव्य लेश्याओं के वर्ण का कारण तथा दृष्टांत, (३) कषायों के उदयस्थान सहित संक्लेश-विशुद्धि स्थान, (४) स्वस्थान परस्थान संक्रमणरूप संक्लेश विशुद्धि २१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ स्थान, (५) छह लेश्याओं का कर्म (कार्य) का उदाहरण वर्णन, (६) छह लेश्याओं का लक्षण, (७) गति आयु बन्ध-अबन्ध रूप छह लेश्याओं के छब्बीस अंशों का वर्णन, (८) भाव लेश्याओं के चारों गति सम्बन्धी स्वामिओं का वर्णन, (९) द्रव्य लेश्या और भाव लेश्याओं के साधन (कारण) का वर्णन, (१०) संख्या अधिकार में छह लेश्यावाले जीवों की संख्या का वर्णन, (११) स्थान अधिकार में स्वस्थान-समुद्घात उपपादस्थान का वर्णन (१२) स्पर्शन अधिकार में तीन काल सम्बन्धी क्षेत्र का वर्णन, (प्रसंगवश मेरु पर्वत से लेकर सहस्रार स्वर्ग पर्यंत सर्वत्र पवन के सद्भाव का वर्णन ), (१३) काल अधिकार में छह लेश्याओं का वासना काल का वर्णन, (१४) अन्तर अधिकार में छह लेश्याओं का जघन्य उत्कृष्ट विरहकाल का वर्णन, (१५) भाव अधिकार में लेश्याओं के औदयिक भाव का वर्णन, (१६) अल्पबहुत्व अधिकार में लेश्या धारी जीवों की संख्या का अल्पबहुत्व वर्णन है। इस प्रकार लेश्या का वर्णन कर लेश्यारहित जीवों का वर्णन किया है। १६ भव्य मार्गणा-अधिकार--भव्य अभव्य के स्वरूप तथा उनकी संख्या का वर्णन है । प्रसंगवश पंच परावर्तन का वर्णन किया है । १७ सम्यक्त्व मार्गणा-अधिकार-सम्यक्त्व के स्वरूप का वर्णन-सराग, वीतराग भेद से सम्यक्त्व का वर्णन, षद्रव्य नव पदार्थो के स्वरूप का वर्णन, रुपी-अरुपी अजीव द्रव्यों का वर्णन, धर्मादिक अमूर्तद्रव्यों के अस्तित्व की सिद्धि काल द्रव्य का वर्तना हेतुत्व लक्षण का दृष्टांत पूर्वक वर्णन है। मुख्य काल के अस्तित्व की सिद्धि समय आवली आदि व्यवहार काल का वर्णन, व्यवहार काल के निमित्त का वर्णन है। स्थिति अधिकार में सर्व द्रव्य अपने अपने पर्यायों के समुदायरूप अवस्थित है। जीवादिक द्रव्यों का अवगाह क्षेत्र वर्णन है । प्रसंगवश समुद्घातों का वर्णन है । जीव के संकोच विस्तार शक्ति का वर्णन है । जीवादिक द्रव्यों की तथा उनके प्रदेशों की संख्या का वर्णन है। द्रव्यों के चल-अचल प्रदेशों का वर्णन है । अणुवर्गणा आदि तेईस पुद्गल वर्गणाओं का वर्णन है। आहारादि बर्गणाओं के कार्य का वर्णन है । महास्कंध वर्गणा का वर्णन है । पुद्गल द्रव्य के स्थूल-स्थूल स्थूल आदि छह भदों का वर्णन है। धर्मादि द्रव्यों के उपकार का वर्णन है। नवपदार्थों का वर्णन है। पापजीवों का वर्णन है । चौदह गुणस्थानों में जीवों की संख्या प्रमाण का वर्णन है । नरकादि गति के जीव यथा संभव मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में कितने रहते है उनका वर्णन है। द्रव्य-पुण्य-पाप का वर्णन है। सम्यक्त्व के भदों का वर्णन है। क्षायिक सम्यक्त्व के होने का- कितने भव में क्षायिक सम्यक्त्वी को मुक्ति होने के नियम का वर्णन है। सम्यक्त्व के पांच लब्धि का वर्णन है। १८ संज्ञी मार्गणा अधिकार में संज्ञी-असंज्ञी जीवों का उनकी संख्या प्रमाण का वर्णन है । १९ आहार मार्गणा अधिकार-में आहारक अनाहारक जीवों का वर्णन है। सात समुद्घात का वर्णन है। २० उपयोग अधिकार में साकार अनाकार उपयोग का वर्णन है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार १६३ २१ ओघादेश योगप्ररूपणा-अधिकार में गति आदि मार्गणाओं में गुणस्थान और जीवसमासों का वर्णन है। २२ आलाप अधिकार में सामान्य-पर्याप्त-अपर्याप्त आलापों का वर्णन है । गुणस्थान- मार्गणा स्थानों में २० प्ररुपणाओं का वर्णन है। इस प्रकार ‘जीवकांड ' नामक महाधिकार में बाईस प्ररूपणा अधिकारों का वर्णन किया है । २. कर्मकांड नामक महाधिकार इस में नव अधिकार हैं। १ प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार में जीव-कर्म के सम्बन्ध का, उनके अस्तित्व का दृष्टांत पूर्वक वर्णन है। कर्म के बन्ध उदय सत्त्व प्रकृतियों के प्रमाण का वर्णन है । ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियों का, घाति-अघाति भेदों का, उनके कार्य का दृष्टांतपूर्वक वर्णन है । प्रसंग वश अभव्य को केवल ज्ञान का सद्भाव सम्बन्धी प्रश्नोत्तर रूप से वर्णन है। अनन्तानुबन्धी आदि कषायों का कार्य व वासना काल इनका वर्णन है। कर्म प्रकृतियों में पुद्गलविपाकी भवविपाकी क्षेत्रविपाकी जीवविपाकी प्रकृतियों का वर्णन है। नामादि चार निक्षेपों का वर्णन है। २ बन्ध-उदय-सत्त्व-अधिकार--बन्ध के प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश भेदों का वर्णन है। उनके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट-जघन्य-अजघन्य अंशों का, तथा उनके सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुव बन्ध का वर्णन है। किस गुणस्थान में किस प्रकृति का बन्ध-नियम है उसका वर्णन है। तीर्थंकर प्रकृति बन्धने की विशेषता का वर्णन है। किस गुणस्थान में किस प्रकृति की बन्धव्युच्छित्ति होती, किस का बन्ध, किसका अबंध होता इसका वर्णन है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयविवक्षा से व्युच्छित्ति का स्वरूप वर्णन है। उत्कृष्ट स्थिति बन्ध संज्ञी पंञ्चेद्रिय पर्याप्तक को ही होता है । मोहादि कर्म के आबाधाकाल का तथा आयुकर्म के आबाधा-काल का वर्णन है। देव-नारकी-कर्म भूमि-भोगभूमि-जीवों को आयु बन्ध होने के समय का वर्णन है। अनुभागबंध के वर्णन में घातिया कर्मों के लता-दारु-अस्थि-शैलभागरूप अनुभाग का तथा अघातिकर्मों की प्रशस्त प्रकृतियों का गुड-खंड-शर्करा-अमृत रूप अनुभाग का, तथा अप्रशस्त प्रकृतियों का निंब-कांजीर-विष-हालाहल रूप अनुभाग का वर्णन है। प्रदेशबंध के वर्णन में एक जीव को प्रत्येक समय में कितने कर्मपरमाणु बद्ध होते है उनका वर्णन है। सिद्धराशि के अनन्तवां भागप्रमाण अथवा अभव्य राशि से अनन्तगुणा प्रमाण समयप्रबद्ध का प्रमाण है। घातिकर्मों में देशघाति-सर्वघाति विभाग का वर्णन है। अंतराय कर्मप्रकृतियों में सर्वघातिपना नहीं है। प्रसंगवश योगस्थान श्रेणी के असंख्यातवा भागमात्र है उनका वर्णन है। उनसे असंख्यात लोक गुणा अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थान है उनका वर्णन है । उदय का वर्णन करते हुये किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का उदय, उदयव्युच्छित्ति, अनुदय होता है उनका वर्णन है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ सत्त्व का वर्णन करते हुये किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का सत्त्व - सत्त्व व्युच्छित्ति होती है। इनका वर्णन है । १६४ ३ सत्त्वस्थान अधिकार में एक जीव को एक काल में युगपत् कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है, बद्धायु हो या अबद्धायु हो तो किन प्रकृतियों की सत्ता रहती है इसका विशेष वर्णन है । ४ त्रिचूलिका अधिकार - (१) प्रथम चूलिका नव प्रश्नों को पूछकर प्रथम चूलिका का व्याख्यान है । प्र. १. किन प्रकृतियों के उदयव्युच्छित्ति के पहले बंधव्युच्छित्ति होती है । प्र. २. किन प्रकृतियों के उदयव्युच्छित्ति के अनन्तर बंधव्युच्छित्ति होती है । प्र. ३. किन प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति और बंध- व्युच्छित्ति युगपत् होती है । प्र. ४. किन प्रकृतियों का उदय होते हुये ही बंध होता है । प्र. ५. किन प्रकृतियों का अन्य का उदय होते हुये ही बंध होता है । प्र. ६. किन प्रकृतियों का अपना या परका उदय होते हुये बंध होता है । प्र. ७. किन प्रकृतियों का निरंतर बन्ध होता है । प्र. ८. किनका सांतर बन्ध होता है । प्र. ९. किनका सांतर - निरंतर बन्ध होता है । पंचभाग हार चूलिका - में उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रमण, सर्वसंक्रमण इनका वर्णन है । ३ दशकरण चूलिका - में १ बन्ध, २ उत्कर्षण, ३ संक्रमण, ४ अपकर्षण, ५ उदीरणा, ६ सत्त्व, ७ उदय, ८ उपशम, ९ निधत्ति, १० निकाचित इन दश करणों का वर्णन है । ५ (बन्ध-उदय-सत्त्वसहित स्थान समुत्कीर्तन अधिकार ) - एक जीव को युगपत् संभव प्रकृतियों के बन्ध - उदय - सत्त्व रूप स्थान तथा उनमें परिवर्तन होने के भंग इनका वर्णन है । प्रसंगवश किस गुणस्थान से किस गुणस्थान में चढना - उतरना ( गति - आगति ) होता है इसका वर्णन है । ६ प्रत्यय अधिकार — आस्रव के मूल चार प्रत्यय और उत्तर ५७ प्रत्ययों का किस गुणस्थान में कितने प्रत्यय संभव है उनका वर्णन है । ७ भाव चूलिका अधिकार - जीव के मोह और योग भाव से ही १४ गुणस्थान होते हैं । जीव के मूल भाव पांच हैं । १ औपशमिक, २ क्षायिक, ३ मिश्र, ४ औदयिक, ५ पारिणामिक । इनके उत्तर भेद ५३ होते हैं । गुणस्थान अपेक्षा से किसको कितने भाव युगपत् संभव है उनका वर्णन है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार 165 प्रसंगवश यहां 363 कुमतों के भदों का वर्णन है। सर्वथा एकांतवाद मिथ्यावाद है स्याद्वादरूप एकांतवाद सम्यक्वाद है। त्रिकरण चूलिका-अधिकार - इसमें अधःकरण अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण इन तीन करण रूप परिणामों का उनके काल का विशेष वर्णन है / 9 कर्मस्थिति अधिकार- कर्मों की स्थिति तथा तदनुसार उन के आबाधाकाल का वर्णन है / इसमें 1 द्रव्य, 2 स्थिति, 3 गुणहानि, 4 नाना गुणहानि, 5 दो गुणहानि, 6 अन्योन्याभ्यस्त राशि इनका वर्णन अर्थसंदृष्टि-तथा अंकसंदृष्टिपूर्वक विशेष वर्णन है / 1 प्रति समय समयप्रबद्ध प्रमाण (अनंतानंत) कर्म परमाणू बंधते हैं। 2 प्रतिसमय समयप्रबद्ध प्रमाण परमाणू उदय में आते हैं। 3 प्रति समय किंचित् ऊन द्वयर्द्ध गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्त्व में रहते हैं। श्रीमान् पं. टोडरमलजीने इस गहन ग्रंथ में सुगमता से प्रवेश होने के लिये इसके बाद अर्थसंदृष्टि-अधिकार की स्वतंत्र रचना की है। उसमें प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने का विधान वर्णन अत्यंत उपयुक्त है। पांच लब्धि का वर्णन है / प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरण का अभाव है / उसके बाद क्षायिक सम्यक्त्व का वर्णन है / उसका प्रारंभ-निष्ठापन इनका वर्णन है / अनंतानुबंधी के विसंयोजन का वर्णन है। इस प्रकार अर्थसंदृष्टि अंकसंदृष्टि का विशेष वर्णन किया है। श्रीमान् पं. टोडरमलजी का जीवन काल प्रायः करीब 200 वर्ष पूर्व का है। उनका निवास स्थान जयपुर था / श्रीमान् पं. राजमल्लजी इनके साहधर्मी प्रेरक थे। उनकी प्रेरणा से श्रीमान् पं. टोडरमलजी द्वारा इस ग्रंथ की टीका लिखी गई जो कि इनकी चिरस्मृति मानी जाती है। वे यद्यपि राजमान्य पंडित थे तथापि धर्मद्वेष की भावना से अन्यधर्मी पंडितों द्वारा इस महान् विद्वान् का दुःखद अंत हुआ। सत्य धर्म की रक्षा के लिये उन्होंने अपनी प्राणाहुति स्वयं स्वीकृत करली / हाथी के पाव के नीचे मरने का देहान्त राज्यशासनदंड उन्होंने सानंद स्वीकृत किया। इस प्रकार इस महान् पुरुष के वियोग से जैन समाज की महान् क्षति हुई जिसकी पूर्ति होना असंभव है। ॐ शांतिः। शांतिः। शांतिः /