________________ पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार 165 प्रसंगवश यहां 363 कुमतों के भदों का वर्णन है। सर्वथा एकांतवाद मिथ्यावाद है स्याद्वादरूप एकांतवाद सम्यक्वाद है। त्रिकरण चूलिका-अधिकार - इसमें अधःकरण अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण इन तीन करण रूप परिणामों का उनके काल का विशेष वर्णन है / 9 कर्मस्थिति अधिकार- कर्मों की स्थिति तथा तदनुसार उन के आबाधाकाल का वर्णन है / इसमें 1 द्रव्य, 2 स्थिति, 3 गुणहानि, 4 नाना गुणहानि, 5 दो गुणहानि, 6 अन्योन्याभ्यस्त राशि इनका वर्णन अर्थसंदृष्टि-तथा अंकसंदृष्टिपूर्वक विशेष वर्णन है / 1 प्रति समय समयप्रबद्ध प्रमाण (अनंतानंत) कर्म परमाणू बंधते हैं। 2 प्रतिसमय समयप्रबद्ध प्रमाण परमाणू उदय में आते हैं। 3 प्रति समय किंचित् ऊन द्वयर्द्ध गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्त्व में रहते हैं। श्रीमान् पं. टोडरमलजीने इस गहन ग्रंथ में सुगमता से प्रवेश होने के लिये इसके बाद अर्थसंदृष्टि-अधिकार की स्वतंत्र रचना की है। उसमें प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने का विधान वर्णन अत्यंत उपयुक्त है। पांच लब्धि का वर्णन है / प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरण का अभाव है / उसके बाद क्षायिक सम्यक्त्व का वर्णन है / उसका प्रारंभ-निष्ठापन इनका वर्णन है / अनंतानुबंधी के विसंयोजन का वर्णन है। इस प्रकार अर्थसंदृष्टि अंकसंदृष्टि का विशेष वर्णन किया है। श्रीमान् पं. टोडरमलजी का जीवन काल प्रायः करीब 200 वर्ष पूर्व का है। उनका निवास स्थान जयपुर था / श्रीमान् पं. राजमल्लजी इनके साहधर्मी प्रेरक थे। उनकी प्रेरणा से श्रीमान् पं. टोडरमलजी द्वारा इस ग्रंथ की टीका लिखी गई जो कि इनकी चिरस्मृति मानी जाती है। वे यद्यपि राजमान्य पंडित थे तथापि धर्मद्वेष की भावना से अन्यधर्मी पंडितों द्वारा इस महान् विद्वान् का दुःखद अंत हुआ। सत्य धर्म की रक्षा के लिये उन्होंने अपनी प्राणाहुति स्वयं स्वीकृत करली / हाथी के पाव के नीचे मरने का देहान्त राज्यशासनदंड उन्होंने सानंद स्वीकृत किया। इस प्रकार इस महान् पुरुष के वियोग से जैन समाज की महान् क्षति हुई जिसकी पूर्ति होना असंभव है। ॐ शांतिः। शांतिः। शांतिः / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org