Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्रो. रामजी सिंह कुलपति, जैन विश्वभारती संस्थान,
लाडनूं (राजस्थान) का
अध्यक्षीय अभिभाषण
प्राचीन भारतीय संस्कृति की तीन धाराएँ हैं—वैदिक, श्रमण एवं लोकायत । वैदिक संस्कृति का व्यापक विस्तार स्वाभाविक है । श्रमण संस्कृति का बौद्ध एवं जैन दो धाराओं में प्रसार हुआ। ऐतिहासिक कारणों से भारत में इसे एक तरफ आदर भी मिला है तो दूसरी तरफ उनके साथ असहिष्णुतापूर्ण अन्याय हुआ है। एक तरफ भगवान् बुद्ध को 'अवतार' भी माना गया है, महावीर की पूजा हुई है, दूसरी और बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित कर दिया गया है और जैन धर्म को एक प्रकार से संकीर्ण से संकीर्ण सीमाओं में आबद्ध कर दिया गया है। लोकायत-दर्शन के भौतिकवादी-भोगवादी तत्त्वों को महाभारत-काल से आगे तक भारतीय जीवन-वृत्ति में अपनाया तो गया, किन्तु उस विचारधारा की जितनी निन्दा हुई, उसे जितनी गालियाँ दी गईं, उसे कलंकित किया गया, उतना समझा नहीं गया। यह भारतीय दर्शन के अनुदारवाद की पराकाष्ठा का प्रमाण है।
जहाँतक समकालीन जैन चिन्तन का प्रश्न है, हमें स्वीकार करना होगा कि पिछली पाँच शताब्दियों में चर्चित-चर्वण एवं खण्डन-मण्डन के कुछ तेजस्वी प्रयत्नों के अलावा कोई सृजनात्मक विचार का प्रवर्तन नहीं हो सका। आगम-युग का वाङ्मय अर्हतों-सिद्धों, साधु-सन्तों की अपरोक्षानुभूति का अमृत है। वह तो जन-चिन्तन का बीज है, जिसकी सृजनात्मकता का अंकुरण अनेकान्त की स्थापना के युग में हुआ। तर्कयुग में तो खण्डन-मण्डन ही हुआ, कुछ सृजन नहीं । नवीन युग में भी कोई सृजनात्मक काम नहीं हुआ। मेरी दृष्टि में आगम-युग यदि जैन विचार की गंगोत्री है, तो अनेकान्त-युग ही उसकी स्वर्ण-गंगा है। यह ठीक है कि अनेकान्त-व्यवस्था के युग में भी बौद्धों और जैनों आदि के परस्पर वैचारिक संघर्ष हुए। अनेकान्त ही जैनधर्म का प्राण है और अहिंसा का भी यही वैचारिक आधार है। यह ठीक है कि आगम-युग में भी अनेकान्त-भावना के दर्शन होते हैं। भगवान महावीर को केवल ज्ञान होने के बाद जिन १० महास्वप्नों के दर्शन हुए थे, उनमें तीन स्वप्न अनेकान्त का संकेत करते हैं। भगवान् बुद्ध ने
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