Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जटासिंहनन्दी का ‘वरांगचरित' और उसकी परम्परा
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में और यदि जटासिंहनन्दी कूर्चक हैं तो कूर्चकों में भी कल्पवासी देवों के १२ प्रकार मानने की परम्परा रही होगी। आगे यापनीयों में १६ देवलोकों की मान्यता किसी अन्य परम्परा के प्रभाव से आई होगी।
(१०) 'वरांगचरित' में वरांगकुमार की दीक्षा का विवरण देते हुए लिखा गया है कि : 'श्रमण और आर्यिकाओं के समीप जाकर तथा उनका विनयोपचार (वन्दन) करके वैराग्ययुक्त वरांगकुमार ने एकान्त में जा सुन्दर आभूषणों का त्याग किया तथा गुण, शील, तप एवं प्रबुद्ध तत्त्व-रूपी सम्यक् श्रेष्ठ आभूषण तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करके वे जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित मार्ग में अग्रसर हुए'।२३ दीक्षित होते समय मात्र आभूषणों का त्याग करना तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करना दिगम्बर-परम्परा के विरोध में जाता है। इससे ऐसा लगता है कि जटासिंहनन्दी दिगम्बर-परम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा का अनुसरण करनेवाले थे। यापनीयों में अपवाद-मार्ग में दीक्षित होते समय राजा आदि का नग्न होना आवश्यक नहीं माना गया था। चूँकि वरांगकुमार राजा थे, इसलिए सम्भव है कि उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित होते दिखाया गया हो। यापनीय ग्रन्थ 'भगवती आराधना' एवं उस की अपराजिता टीका में हमें ऐसे निर्देश मिलते हैं कि राजा आदि कुलीन पुरुषों के दीक्षित होते समय या संथारा ग्रहण करते समय अपवाद लिंग (सवस्त्र) रख सकते हैं ।२४ पुनः ‘वरांगचरित' में हमें मुनि की चर्या के प्रसंग में हेमन्त-काल में शीत-परिषह सहते समय मुनि के लिए मात्र एक बार दिगम्बर शब्द का प्रयोग मिला है।३५ सामान्यतया 'विशीर्णवस्त्रा' शब्द का प्रयोग हुआ है । एक स्थल पर अवश्य मुनियों को निरस्त्रभूषा' कहा गया है२६, किन्तु निरस्त्रभूषा का अर्थ साज-सज्जा से रहित होता है, नग्न नहीं । ये कुछ ऐसे तथ्य हैं, जिनपर ‘वरांगचरित' की परम्परा का निर्धारण करते समय गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए। मैं चाहूँगा कि आगे आनेवाले विद्वान् सम्पूर्ण ग्रन्थ का गम्भीरतापूर्वक आलोडन करके इस समस्या पर विचार करें।
साध्वियों के प्रसंग में चर्चा करते समय उन्हें जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को धारण करनेवाली अथवा विशीर्ण वस्त्रों से आवृत देहवाली कहा गया है ।३७ इससे भी यह सिद्ध होता है कि वरांगचरितकार जटासिंहनन्दी को स्त्री-दीक्षा और सवस्त्र दीक्षा मान्य थी। जबकि कुन्दकुन्द स्त्री-दीक्षा का सवर्था निषेध करते हैं।
(११) 'वरांगचरित' में स्त्रियों की दीक्षा का स्पष्ट उल्लेख है३९ उसमें कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है कि स्त्री को उपचार से महाव्रत होते हैं, जैसा कि दिगम्बर-परम्परा मानती है। इस ग्रन्थ में उन्हें तपोधना, अमितप्रभावी, गणाग्रणी, संयमनायिका जैसे सम्मानित पदों से अभिहित किया गया है। साध्वी-वर्ग के प्रति ऐसा आदरभाव कोई श्वेताम्बर या यापनीय आचार्य ही प्रस्तुत कर सकता है। अतः, इतना निश्चित है कि
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