Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Insitute Research Bulletin No. 8
सिंहलराज गगनादित्य से थी। सिंहलराज उज्जैन भी आये थे। सिंहलराज के पुत्रों ने विजय जैनमुनि से व्रत ग्रहण किये थे।
महावंश से स्पष्ट है कि ई.पू. चौथी शताब्दी में सिंहलराज पाण्डुकाभय ने वहाँ की राजधानी अनुराधापुर में एक जैन मन्दिर और जैन मठ का निर्माण करवाया था। इसमें गिरि नामक जैन मुनि का संघ रहा करता था। ई.पू. चौथी शताब्दी में सिंहलराज का ध्यान जैन धर्म की ओर गया और उन्होंने जिन-मन्दिर का निर्माण करवाया। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जैन धर्म ई.पू. चौथी शताब्दी से पहले ही श्रीलंका में पहुँच चुका था । पाण्डुकाभय का बनवाया गया यह मन्दिर उनके बाद के इक्कीस राजाओं के शासनकाल तक विद्यमान रहा, परन्तु ई.पू. ३८ में सिंहलराज वट्टगामिनी ने उनको नष्ट कर उनके स्थान पर बौद्ध विहार का निर्माण करवाया। इसके पश्चात् श्रीलंका में बौद्ध धर्म का जबरदस्त प्रभाव रहा। लेकिन इसके बावजूद जैनधर्म ने मध्यकाल तक वहाँ अपना प्रभाव बनाये रखा। मध्यकाल में जैन मुनि यश:कीर्ति इतने प्रभावशाली हुए कि तत्कालीन सिंहलराज ने उनके चरण-चिह्नों की अर्चना की।१२ सम्भवत: मुनि यश:कीर्ति भारत से श्रीलंका गये। उन्होंने वहाँ लुप्त होते जैनधर्म को कुछ समय के लिए आधार प्रदान किया।
इस प्रकार, श्रीलंका का अनार्यत्व जैनों ने ही दूर किया और उसे सुसंस्कृत बनाया। किन्तु, आज वहाँ जैन धर्म का कोई चिह्न शेष नहीं है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि जैन आचार्यों में संघ-विस्तार की भावना ही विलुप्त हो गई और फिर आचार्य-परम्परा का भी अभाव हो गया।
संदर्भ-स्रोत :
१. 'ये सिंहलावर्वरकाः किराता.....ऽनार्य वर्गेनिपन्ति सर्वे ।'-वरांगचरित, पृ. ६६ २. आवश्यकचूर्णि, पृ. १९१ एवं आदिपुराण ३. लाइफ इन एंशियेण्ट इण्डिया, पृ. ३३४ : लेखक : जगदीशचन्द्र जैन ४. वरांगचरित, पृ.६६ ५. गउसिंहलदीवहो णिवसमाणु, करंकडुणराहि उणर पहारणु । जहिं पाउलपिल्लहमणु
हरंति, सुरखेचर किरंभर जहिं रमंति ।गयलीलहं महिलउ जहिं चलंति, णियरूवे
रहि, उर विखलति (७.४) इत्यादि ६. द्वीपे सिहंलनाम्नि सागर तटाः सद्भुत मुक्ताफलाः, शैला निर्मल पद्मरागमण्योऽ
ख्यानि सेमनिच । तहेशोदमवविश्ववामनयनाः श्री पद्मिनी जातिजाः, राजन्ते महिपाः सदागतभताचारास्तदुत्पतिकाः । - प्रशस्तिसंग्रह, पृ. १३४
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