Book Title: Prayashchitta Sangraha
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 8
________________ ( ८ ) वर्ष पहलेका लिखा हुआ है । इसकी दुसरी प्रति प्रयत्न करनेपर भी कहीं प्राप्त न हो सकी । इसकी भी संस्कृतच्छाया पं० पन्नालालजी सोनाद्वारा कराई गई है । ३- प्रायश्चित्त-चूलिकां । यह ग्रन्थ संस्कृत में है और सटीक है । मूल ग्रन्थकी श्लोकसंख्या १६६ है । यह भी केवल एक ही प्रतिके आधार से छपाया गया है और वह प्रति पूनेके 6 ' भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट' की है जो प्रायः अशुद्ध है और संवत् १९४२ की लिखी हुई है । दूसरी प्रति नहीं मिल सकी । इस ग्रन्थकी प्रशस्ति में लिखा है: - यः श्रीगुरूपदेशेन प्रायश्चितस्य संग्रहः । दासेन श्रीगुरोर्द्वधो भव्याशयविशुद्धये ॥ १ तस्यैषा ऽनूदिता वृत्तिः श्रीनन्दिगुरुणा हि सा । विरुद्धं यदभूत्र तत्क्षाम्यतु सरस्वती ॥ २ ( " इससे मालूम होता है कि मूलग्रन्थके कर्ता श्रीगुरुदास हैं और वृत्तिके कर्ता श्रीनन्दिगुरु हैं । मूलकर्ताका नाम बिल्कुल अपरिचतसा और विलक्षणसा मालूम होता है । बल्कि हमें तो इसके नाम होनेमें सन्देह होता है । दासेन और श्रीगुरोः ' ये दो पद अलग अलग पड़े हुए हैं और इनका अर्थ यही होता है, कि श्रीगुरुके दासने बनाया । आश्चर्य नहीं जो टीकाकारको मूलकर्ताका नाम न मालूम हो और उन्होंने साधारण तौर से यह लिख दिया हो कि यह श्रीगुरुके एक दासका बनाया हुआ है और में इसकी वृत्ति रचता हूँ । और यदि 'श्रीगुरुदास यह नाम ही है, तो हम अभी तक उनके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते हैं । इस नामके किसी भी आचार्यका नाम देखने सुननेमें नहीं आया । टीकाके कर्ता श्रीनन्दि गुरु हैं । > धाराधीश महाराज भोजके समय में श्रीचन्द्र नामके एक विद्वान् हो गये हैं । (१) परिकर्म - सूत्र - पूर्वानुयोग- पूर्वगत-चूलिकाः पञ्च । स्युर्दृष्टिवादभेदाः - -अभिधानचिन्तामणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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