Book Title: Prayashchitta Sangraha
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ ( १० ) ग्रन्थों के बहुत से पद्य अपने ग्रन्थमें दिये हैं । अत एव वे इन सब ग्रन्थकर्ताओंसे पीछेके विद्वान् हैं, यह कहने में कोई संकोच नहीं हो सकता । > इस ग्रन्थकी रचना - शैली से भी मालूम होता है कि न तो यह उतना प्राचीन ही है और न भट्ट अकलङ्कदेवकी रचनाओंके समान इसमें कोई प्रौढता ही है । इसका ' मोक्कूला ' शब्द जो बीसों जगह आया है-संस्कृत नहीं किन्तु देशभाषाका है और भद्रबाहु - संहिता ( खण्ड १, अ० १० ) में भी यह ' मोकला रूपमें व्यवहृत हुआ है । गुजराती और मारबाड़ीमें ' मोकला ' शब्द विपुलता या अधिताका वाचक है । लघु अभिषेक और मोकला अर्थात् बड़ा अभिषेक | कर्नाटक देशके भट्ट अकलंकदेवकी रचनामें इस शब्दका प्रयोग असंगत ही दिखता है । और भी ऐसी कई बातें हैं जिनसे इसकी अर्वाचीनता प्रकट होती है । जैसे अनेक अपराधोंके दण्डमें गौओंका दान और ताम्बूलदान । जहाँ तक हम जानते हैं अनेक आचार्योंने 'गौ-दान का निषेध किया है । इसके सिवाय इस ग्रन्थका पहले तीन प्रायश्चित्त-ग्रन्थोंके साथ मतभेद भी मालूम होता है, उदाहरण के लिए इसका यह श्लोक देखिए: , जननीतनुजादीनां चाण्डालादिस्त्रियामपि । संभोगे सति शुद्धयर्थं पंचाशदुपवासकाः ॥ इसके अनुसार माता पुत्री चाण्डाली आदिके साथ व्यभिचार करनेवालेको पंचाशत् उपवास करना चाहिए; परन्तु अन्य तीनों प्रायश्चित्त-ग्रन्थों में इस पापका प्रायश्चित्त ३२ उपवास लिखा है । इसी तरह अन्यान्य पापों के प्रायश्चित्तके सम्बन्धमें भी मतभेद है । विद्वानों को इस मतभेद पर भी खास तौर से विचार करना चाहिए । अन्तमें मैं इतना और कहकर अपने निवेदनको समाप्त करूँगा कि ग्रन्थकर्ताओंके समय-निर्णयका मैंने जो यह प्रयत्न किया है वह अपनी छोटीसी बुद्धिके अनुसार किया है । बहुत संभव है कि मेरे अनुमान गलत हों और ऐसी दशामें मैं अपनी भूलोंको सुधारनेके लिए सदा तत्पर हूँ । परन्तु कोई महाशय यह समझ लेनेकी कृपा न करें कि मैं जान बूझकर किसीको प्राचीन या अर्वाचीन ठहरानेका प्रयत्न करता हूँ । ऐसे प्रयत्नको बहुत ही घृणित समझता हूँ । बम्बई, आषाढ़ सुदी ३ निवेदक सं० १९७८ वि० । नाथूराम प्रेमी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 200