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ग्रन्थों के बहुत से पद्य अपने ग्रन्थमें दिये हैं । अत एव वे इन सब ग्रन्थकर्ताओंसे पीछेके विद्वान् हैं, यह कहने में कोई संकोच नहीं हो सकता ।
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इस ग्रन्थकी रचना - शैली से भी मालूम होता है कि न तो यह उतना प्राचीन ही है और न भट्ट अकलङ्कदेवकी रचनाओंके समान इसमें कोई प्रौढता ही है । इसका ' मोक्कूला ' शब्द जो बीसों जगह आया है-संस्कृत नहीं किन्तु देशभाषाका है और भद्रबाहु - संहिता ( खण्ड १, अ० १० ) में भी यह ' मोकला रूपमें व्यवहृत हुआ है । गुजराती और मारबाड़ीमें ' मोकला ' शब्द विपुलता या अधिताका वाचक है । लघु अभिषेक और मोकला अर्थात् बड़ा अभिषेक | कर्नाटक देशके भट्ट अकलंकदेवकी रचनामें इस शब्दका प्रयोग असंगत ही दिखता है । और भी ऐसी कई बातें हैं जिनसे इसकी अर्वाचीनता प्रकट होती है । जैसे अनेक अपराधोंके दण्डमें गौओंका दान और ताम्बूलदान । जहाँ तक हम जानते हैं अनेक आचार्योंने 'गौ-दान का निषेध किया है । इसके सिवाय इस ग्रन्थका पहले तीन प्रायश्चित्त-ग्रन्थोंके साथ मतभेद भी मालूम होता है, उदाहरण के लिए इसका यह श्लोक देखिए:
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जननीतनुजादीनां चाण्डालादिस्त्रियामपि ।
संभोगे सति शुद्धयर्थं पंचाशदुपवासकाः ॥
इसके अनुसार माता पुत्री चाण्डाली आदिके साथ व्यभिचार करनेवालेको पंचाशत् उपवास करना चाहिए; परन्तु अन्य तीनों प्रायश्चित्त-ग्रन्थों में इस पापका प्रायश्चित्त ३२ उपवास लिखा है । इसी तरह अन्यान्य पापों के प्रायश्चित्तके सम्बन्धमें भी मतभेद है । विद्वानों को इस मतभेद पर भी खास तौर से विचार करना चाहिए ।
अन्तमें मैं इतना और कहकर अपने निवेदनको समाप्त करूँगा कि ग्रन्थकर्ताओंके समय-निर्णयका मैंने जो यह प्रयत्न किया है वह अपनी छोटीसी बुद्धिके अनुसार किया है । बहुत संभव है कि मेरे अनुमान गलत हों और ऐसी दशामें मैं अपनी भूलोंको सुधारनेके लिए सदा तत्पर हूँ । परन्तु कोई महाशय यह समझ लेनेकी कृपा न करें कि मैं जान बूझकर किसीको प्राचीन या अर्वाचीन ठहरानेका प्रयत्न करता हूँ । ऐसे प्रयत्नको बहुत ही घृणित समझता हूँ ।
बम्बई, आषाढ़ सुदी ३
निवेदक
सं० १९७८ वि० ।
नाथूराम प्रेमी ।
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