Book Title: Prayashchitta Sangraha
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 7
________________ ( ७ ) श्रवणबेलगोलकी मल्लिषेणप्रशस्तिमें लिखा है: दुरितग्रहनिग्रहाद्भयं यदि भो भूरिनरेन्द्रवन्दितम् । ननु तेन हि भव्यदेहिनो भजत श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् । यह प्रशस्ति शक संवत् १०५० ( वि० सं० ११८५ ) में उत्कीर्ण की गई है, अतः संभव है कि गोम्मटसारोल्लिखित इन्द्रनन्दि, और इस प्रशस्ति में जिनकी प्रशंसा की गई है वे इन्द्रनन्दि, दोनों एक ही हों । < श्रुतावतार ' के कर्ता भी इन्द्रनन्दि नामके आचार्य हैं । हमारा अनुमान है कि ये भी गोम्मटसार और मल्लिषेणप्रशस्तिके इन्द्रनन्दि से अभिन्न होंगे। क्यों कि श्रुतावतार में वीरसेन और जिनेसेन आचार्य तककी ही सिद्धान्त- रचनाका उल्लेख है । यदि वे नेमिचन्द्र आचार्यसे पीछे हुए होते, तो बहुत संभव है कि गोम्मटसारका भी उल्लेख करते । नीतिसार ( समयभूषण ) के कर्ता भी इन्द्रनन्दि नामके आचार्य हैं; परन्तु वे गोम्मटसारके कर्ताके पीछे हुए हैं, क्यों कि उन्होंने नीतिसार के ७० वें श्लोक में नेमिचन्द्रका उल्लेख किया है ( प्रभाचन्द्रो नेमिचन्द्र इत्यादि मुनिसत्तमैः ) । अत एव वे पहले इन्द्रनन्दि तो नहीं हो सकते । बहुत संभव है कि वे और इस इन्द्रनन्दिसंहिता के कर्ता एक ही हों । २- छेदशास्त्र । I ९० इसका दूसरा नाम 'छेदनवति' भी है । क्यों कि इसमें नवति या गाथायें हैं । यह भी प्राकृतमें है । इसके साथ एक छोटीसी वृत्ति भी है । परन्तु इससे न तो मूलग्रन्थ के कर्त्तीका नाम मालूम हो सकता है और न वृत्तिके कर्ताका और ऐसी दशा में इसके बननेका समय तो निश्चित ही क्या हो सकता है । इस ग्रन्थका भी सम्पादन और संशोधन केवल एक ही प्रतिके आधारसे हुआ है और यह प्रति बम्बई के तेरहपंथी मन्दिरका वह प्राचीन गुटका है जो अतिशय जीर्ण शीर्ण गलितपृष्ठ होकर भी प्रायः शुद्ध है और हमारे अनुमानसे जो ४००-५०० ( १ ) श्रुतावतार के मुद्रित पाठमें जिनसेन के बदले ' जयसेन ' है । ( २ ) मुद्रित प्रन्थ ९४ गाथाओं में है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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