Book Title: Pravachanasara
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 13
________________ 12* प्रवचनसार श्रीमदजीने अपने सम्बन्धमें जो बातें लिखीं हैं वे बड़ी रोचक और समझने योग्य हैं। दूसरोंको भी मार्गदर्शन कारण हैं। वे लिखते हैं कि-"छुटपनकी छोटी समझमें कौन जाने कहाँ से ये बड़ी बड़ी कल्पनाएँ आया करती थीं । सुखको अभिलाषा कुछ कम न थी; और सुखमें भी महल, बाग, बगीचे स्त्री आदिके मनोरथ किए थे । किन्तु मनमें आया करता था कि यह सब क्या है? इस प्रकार के विचारोंका यह फल निकला कि न पुनर्जन्म है, न पाप है और न पुण्य है। सुखसे रहना और संसारका सेवन करना। बस, इसीमें कृतकृत्यता है। इससे दूसरी झंझटोंमें न पड़कर धर्म की वासना भी निकाल डाली । किसी भी धर्मके लिए थोडा बहुत भी मान अथवा श्रद्धाभाव न रहा, किन्तु थोडा समय बीतनेके बाद इसमेंसे कुछ और ही हो गया । आत्मामें अचानक बड़ा भारी परिवर्तन हुआ, कुछ दूसरा ही अनुभव हुआ; और वह अनुभव ऐसा था, जो प्रायः शब्दोंमें व्यक्त नहीं किया जा सकता और न जड़वादियोंको कल्पनामें भी आ सकता है । वह अनुभव क्रमसे बढ़ा और बढ़ कर अब एक 'तू ही तू ही' का जप करता है।" एक दूसरे पत्रमें अपने जीवनको विस्तार पूर्वक लिखते हैं-"बाईस वर्षको अल्पवयमें मैंने आत्मा सम्बन्धी, मन सम्बन्धी, वचन सम्बन्धी तन सम्बन्धी और धन संबन्धी अनेक रंग देखे हैं । नाना प्रकारको सृष्टि रचना, नाना प्रकारको संसारिक लहरें और अनन्त दुःखके मूल कारणोंका अनेक प्रकारसे मुझे अनुभव हुआ है । समर्थ तत्त्वज्ञानियोंने और समर्थ नास्तिकोंने जैसे जैसे विचार किए हैं, उसी तरहके अनेक मैने इसी अल्पवयमें किए हैं। महान् चक्रवर्ती द्वारा किए गए तृष्णापूर्ण विचार और एक निःस्पृही आत्मा द्वारा किये गए निःस्पृहापूर्ण विचार भी मैंने किए हैं । अमरत्वको सिद्धि और क्षणिकत्वको सिद्धि पर मैंने खूब मनन किया है । अल्पवयमें ही मैंने महान् विचारकर डाले हैं; और महान् विचित्रताको प्राप्ति हुई है । यहाँ मैं अपनी समुच्चयचर्या लिखता हूँ । जन्मसे सात वर्षको बाल वय नितान्त खेल कूदमें ही व्यतीत हुई थी। उस समय मेरी आत्मामें अनेक प्रकारको विचित्र कल्पनाएँ उत्पन्न हुआ करती थीं । खेल कूदमें भी विजयी होने और राजराजेश्वर जैसी ऊँची पदवी प्राप्त करनेकी मेरी परम अभिलाषा रहा करती थी। स्मृति इतनी अधिक प्रबल थी कि वैसी स्मृति इस कालमें, इस क्षेत्रमें बहुत ही थोड़े मनुष्यों को होगी। मैं पढ़नमें प्रमादी था, बात बनाने में होशियार, खिलाड़ी और बहुत ही आनन्दी जीव था । जिस समय शिक्षक पाठ पढ़ाता था उसी समय पढ़कर मैं उसका भावार्थ सुना दिया करता था; बस, इतनेसे मुझे छुट्टी मिल जाती थी। मुझमें प्रीति और वात्सल्य बहुत अधिक था; मैं सबसे मित्रता चाहता था, सबमें भ्रातृभाव हो तो सुख है, यह विश्वास मेरे मनमें स्वाभाविक रूपसे रहता था । मनुष्यों में किसी भी प्रकारका जुदाईका अंकुर देखते ही मेरा अन्तःकरण रो पड़ता था। आठवे वर्षमें मैंने कविता लिखी थी, जो पीछे से जांच करनेपर छन्दशास्त्र के नियमानुकल थी। उस समय मैंने कई ग्रन्थ लिखे थे, तथा अनेक प्रकारके और भी बहतसे ग्रन्थ देख डाले थे। मैं मनुष्य जातिका अधिक विश्वासु था। मेरे पितामह कृष्णकी भक्ति किया करते थे। उस वयमें मैंने कृष्णकीर्तन तथा भिन्न भिन्न अवतार सम्बन्धी चमत्कार सुने थे । जिससे मुझे उन अवतारोंमें भक्तिके साथ प्रीति भी उत्पन्न हो गई थी, और रामदासजी नामके साधुसे मैंने बाल-लीलामें कंठी भी बंधवाई थी। मैं नित्य ही कृष्णके दर्शन करने जाया करता था, अनेक कथाएँ सुनता था, और उन्हें परमात्मा मानता था । x x गुजराती भाषाकी पाठशाला की पुस्तकोंमें कितनी जगह जगत्कर्ताके सम्बन्धमें उपदेश है, वह मुझे दृढ हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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