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( २८ )
करोंका दर्शन.
दृष्टिमां भावतां व्यापक सर्वाठामि इस वचनका तात्पर्य यह है
"
कि हे भगवन् जब हम हमारी जीव्हासें ऋषभदेवादिक महावीर पर्यंत, दो चार अक्षरोंका उच्चारण करके तुमेरा नाम मात्रको लेते है, जहां पर भी व्यापकपणे हमको तूं ही दिखलाई देता है । और हमारी दृष्टि मात्र जब तेरी आकृति ( अर्थात् मूर्त्ति ) को देखते है, तब भी उहांपर, हे भगवन हमको तूंही दिखलाई देता है । और तेरी बालक अवस्थाका, अथवा तेरी मृतकरूप शरीरकी अवस्थाका विचार करते है उहां पर भी, हमको तूंही दिख पडता है | और तेरा गुण ग्राम करने की स्तुतिओंको पढते है, उहांपर भी हमको ही दिख पड़ता है । क्योंकि जब हमारी भावदृष्टिमें, हम तेरेको भावते है; तब हे भगवन्- सर्व जगेपर, हमको तूंही व्यापकपणे, दिखता है। परंतु उदासीनता अवरस्युंलीनो तुज नामि, तात्पर्य यह है कि - जब हम - ऋषभदेवादिक महावीर पर्यंत, नाम के अक्षरोंका उच्चारण करते है, तब हम इन अक्षरोंसें, और इस नाम वाली दूसरी वस्तुओं से भी, उदासीनता भाव करके, हे भगवन हम तेरा ही नाम में लीन होके, तेरा हो, स्वरूपको भा बते है । इस वास्ते हमको - दूसरी वस्तुओ, बाधक रूपकी नहीं हो सकती है | एसें ही-हे भगवन् तेरी आकृति ( अर्थात् मूर्त्ति ) को देखते है, उस वखत भी - काष्ट पाषाणादिक वस्तुओंसें भी, उदासीनता रखके ही, तेरा ही स्वरूपमें लीन होते है । एसें ही हे भगवन् तेरी पूर्व अपर अवस्थामें, जो जड स्वरूपका शरीर है, उस वस्तुसे भी - उदासीनता धारण करके, हम तेरा ही स्वरूपमें लीन होते है । इसमें तात्पर्य यह कहा गया कि - १ नाम के अक्षमें | और २ उनकी आकृतिमें । और ३ उनकी पूर्व अपर अत्र
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