Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Sobhagmal Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 7
________________ 228 है तभी जाकर छुटकारा पाता है। तृतीय अध्ययन -- तृतीथ आस्रव द्वार 'अदत्तादान' मृषावाद और अदत्तादान में घनिष्ठ संबंध होना निरूपित करते हुए तीसरे आस्रव द्वार के रूप में सूत्रकार ने तृतीय अध्ययन में अदत्तादान का वर्णन किया है। सर्वप्रथम अदत्तादान के स्वरूप का निरूपण करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि चोरी चिंता एवं भय की जननी तथा संतजनों द्वारा विनिन्दित है। यह चौर्यकर्म परकीय पदार्थ का हरण रूप है, हृदय को जलाने वाला, मरण भय रूप, कलुषित, मलिन, लोभ का मूल, अधोगति की ओर ले जाने वाला, अनार्य पुरुषों द्वारा आचरित है। यह करुणाहीन कृत्य है। यह भेदकारक, अप्रीतिकारक, रागद्वेष की बहुलता वाला, पश्चात्ताप का कारण दुर्गति में ले जाने एवं भवभ्रमण कराने वाला है। यह चिर-परिचित की तरह आत्मा के साथ लगा हुआ है और अंत में इसका परिणाम अत्यंत दुःखदायी है । जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक इसके बाद अदत्तादान के ३० नामों का निरूपण, चौर्य कर्म के विविध प्रकार, परधन में लुब्ध राजाओं के आक्रमण व संग्राम का वर्णन है। 'जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई' की उक्ति के अनुसार अत्यधिक लालसा वाले राजाओं द्वारा युद्ध के लिए शस्त्र सज्जा, युद्ध स्थल की बीभत्सता का निरूपण, चोरी के उपकरणों और १८ प्रकार के चौर्य प्रकारों, छोटे-बड़े सभी तरह के चोरों- वनवासी चोर, समुद्री डाके डालने वाले, ग्रामादि लूटने वाले, तस्करी का कार्य करने वाले आदि का वर्णन है। फिर चोरी के अपराध में दिये जाने वाले कठोर दण्ड- ताड़न, तर्जन, छेदन भेदन, अंग त्रोटन, बंधन, कारावास एवं बंदीगृह में होने वाले दुःख, चोरों को दी जाने वाली भीषण यातनाओं आदि का सविस्तार उल्लेख है । अदत्तग्राही चोरी का पाप और परलोक में दुर्गति की परम्परा निरूपित है। जीव ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों से बंध दशा को प्राप्त कर संसार सागर में रहते हैं, अत: संसार सागर के स्वरूप का निरूपण है। किस प्रकार के अदत्तग्राही चोरों को किस प्रकार के फल मिलते हैं आदि विषय-बिंदुओं के माध्यम से विपुल सामग्री का विस्तार से इस अध्ययन में समावेश किया गया है। उपसंहार के अन्तर्गत बताया गया है कि यह अदत्तादान अल्परूपेण सुखजनक एवं भयंकर से भयंकर दुःख प्रदाता, बड़ा भीषण और कठोर तथा असातावेदनीय कर्म स्वरूप है। साथ ही पर-धन- अपहरण, दहन, मृत्यु, भय, मलिनता, त्रास एवं लोभ का मूल है, जो चिरकाल से प्राणियों के साथ लगा हुआ है एवं इसका फल विपाकं अत्यंत कटुक होने से इसका अंत अत्यन्त कठिनाई से अर्थात् पल्योपम व सागरोपम प्रमाण-काल में होने का कथन सूत्रकार द्वारा किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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