Book Title: Prashna Vyakaran Sutra Author(s): Sobhagmal Jain Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 8
________________ चतुर्थ अध्ययन- चतुर्थ आसव द्वार 'अब्रह्म' चौथे आरव द्वार अब्रह्मचर्य की प्ररूपणा करते हुए भगवान ने उसका स्वरूप फरमाया है कि यह संसारस्थ प्राणियों द्वारा प्रार्थनीय, कमनीय एवं इच्छित है जो प्राणियों को फंसाने के लिए कीचड़ सदृश, फिसलन युक्त, बांधने के लिए पाश एवं फंसाने के लिए जाल सदृश है। जो तीन वेदरूप चिह्न युक्त, तप-संयम-ब्रह्मचर्य एवं चारित्र का विघातक, प्रमाद का मूल, निन्दितों द्वारा सेवनीय, सज्जनों-पापविरतों द्वारा त्याज्य, तीनों लोकों में अवस्थिति, जरा-मरण, रोग-शोक की बहुलता. वध---बंध विघात द्वारा भी जिसका अंत नहीं, मोह का मूल कारण, चिरपरिचित , अनुगत एवं दुरन्त है, जिसका फल अत्यंत ही दु:खप्रद होता है। इसके अतिरिक्त अब्रह्म के ३० गुणनिष्पन्न नाम एवं लक्षण, मोह मुग्धमति देव-देवी, चक्रवर्ती के विशिष्ट भोग, यथा... राज्य विस्तार, विशेषण, शुभ लक्षण, ऋद्धि, निधियाँ, रत्न आदि का निरूपण, बलदेव वासुदेव के भोग, माण्डलिक राजाओं के भोग, युगलिकों आदि अकर्म भूमिज ३२ लक्षण युक्त मनुष्यों के भोग, एवं मनुष्यिणियों की शरीर सम्पदा आदि अनुपम अपार भोग सामग्री को दीर्घकाल तक भोग कर भी बिना तृप्ति के काल कवलित हो जाने, मैथुनासक्ति के कारण हुए अनेक जनक्षयकारी युद्धों का उल्लेख, परस्त्री में लुब्ध जीवों की दुर्दशा, अब्रह्मचर्य का दुष्परिणाम आदि विविध विषयों का इसके अंतर्गत अत्यंत मार्मिक एवं तलस्पर्शी विस्तृत नित्रण प्रस्तुत किया गया है। जो भव्य जीवों के लिए चिंतनीय एवं मननीय है। अंत में इस द्वार का इस लोक और परलोक संबंधी विपाक का कथन करते हुए उल्लेख किया गया है कि यह अल्प सुख एवं बहु दु:ख वाला, अत्यंत भयंकर, पापरज से संयुक्त, बड़ा ही दारुण एवं कठोर, असाताजनक, अनुगत, दुरन्त और नाना प्रकार के दु:खों का दाता है. जिसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है। इस पर विजय के लिए उत्कट साधना की आवश्यकता है। पंचम अध्ययन-पंचम आस्रव द्वार 'परिग्रह' इसके अंतर्गत चल, अचल तथा मिश्र परिग्रह के स्वरूप को विस्तार से प्रकट करते हुए वृक्ष के रूपक के माध्यम से वर्णन किया है। इसमें बताया है कि विविध प्रकार की मणियों, रत्नों, स्वर्णाभूषणों आदि अचेतन; हाथी, अश्व, दास, दासी, नौकर, चाकर आदि चेतन: रथ पालकी आदि सवारियाँ, ग्राम नगरादि से युक्त सम्पूर्ण भरतक्षेत्र का यहाँ तक कि सम्पूर्ण पृथ्वी के अखण्ड साम्राज्य का उपभोग कर लेने पर भी तृष्णा शांत नहीं होती है, क्योंकि “लाभ लोभ का वर्द्धक है'' अत: परिग्रह की वृद्धि करके जो संतोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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