Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Sobhagmal Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 1
________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्री सौभागमल जैन 'प्रश्नव्याकरण' सूत्र का प्राचीन रूप लुप्त हो गया है। उसमें प्रश्नोत्तर शैली में नन्दीसूत्र, समवायांग आदि के अनुसार जो विषयवस्तु थी, वह अब उपलब्ध नहीं है। उसके स्थान पर दो श्रुतस्कन्धों में अब हिंसा आदि पाँच आसवों एवं अहिंसा आदि पाँ संवरों का वर्णन उपलब्ध होता है। हिसा, मृणवाद, नौर्य, मैथुन, परिग्रह तथा इनके विपरीत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का इस सूत्र में गम्भीर, विशद एवं हृदयग्राही विवेचन हुआ है। वरिष्ठ स्वाध्यायी एवं व्याख्याता श्री सोभागमल जी जैन ने इस आलेख में प्रश्नव्याकरण सूत्र की समस्त विषयवस्तु को समेट कर परोसने का प्रयत्न किया है। -सम्पादक जैन धर्म अपने स्वतंत्र अस्तित्व वाला स्वतंत्र धर्म है जिसका अपना स्वयं का दर्शन है एवं मान्य सिद्धान्त हैं। चौबीस तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट और उन्हीं उपदेशों के आधार पर रचा गया साहित्य ही जैन धर्म में प्रमाणभूत है। जिस काल में जो भी तीर्थकर होते हैं, उन्हीं के उपदेश, आचार-विचार आदि तत्कालीन समाज में प्रचलित होते हैं। इस दृष्टि से भ. महावीर स्वामी अंतिम तीर्थकर होने से वर्तमान में उन्हीं के उपदेश अंतिम उपदेश हैं, वे ही प्रमाणभूत हैं। भ. महावीर ने जो उपदेश दिया, उसे गणधरों ने सूत्रबद्ध किया, इसी कारण अर्थ रूप शास्त्र के कर्ता भ. महावीर और शब्द रूप शास्त्र के कर्ता गणधर थे। ऐसा विद्वान आचार्यों ने वीतराग भगवंतों के कथनानुसार एक मत से स्वीकार किया है | आगम या शास्त्र प्रारंभ में लिखे हुए नहीं थे, अपितु कण्ठस्थ थे और वे स्मृति द्वारा सुरक्षित रखे जाते थे। गुरु द्वारा अपने शिष्य को और शिष्य द्वारा प्रशिष्य को श्रुतज्ञान प्रदान करने की परम्परा प्रचलित थी । शिष्य अपने गुरु से सुनकर सीखे गये ज्ञान को सुरक्षित रखते थे । अतः शास्त्रों के लिए श्रुत, स्मृति, श्रुति आदि नाम प्राचीन काल में प्रचलित रहे हैं। वर्तमान में 'आराम' शब्द जैन परम्परा में व्यापक रूप से प्रचलित है जो पूर्ण सार्थकता लिये हुए है। इस संदर्भ में 'आगम' शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए महापुरुषों ने बताया है - १. विधिपूर्वक जीवादितत्त्वों को समझाने वाला शास्त्र आगम है । २. आप्तवचनमागमः इसको स्पष्ट करते हुए बताया है कि "आप्त वे हैं जिनके दोषों का क्षय हो चुका है, अतः दोषमुक्त की वाणी आगम है।" यहाँ प्रतिपाद्य विषय 'प्रश्नव्याकरण सूत्र' है। अतः उस पर चिंतन अभीष्ट है। प्रश्नव्याकरण सूत्र को द्वादशांगी में दसवां स्थान प्राप्त 1 सूत्र का नाम, अर्थ एवं स्वरूप- समवायांग, नंदी और अनुयोगद्वार सूत्र में 'प्रश्नव्याकरण' के लिए 'पण्हावागरणाई' शब्द का प्रयोग हुआ है। सांदर्भिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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