Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Sobhagmal Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 11
________________ 1232... ..... जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषादक अथवा धैर्य और मौन भावना (हास्य त्याग) का निरूपण उपलब्ध है। इस सत्य महाव्रत को जो मुनिजन उक्त पाँच भावनाओं सहित पालते हैं उनके अशुभ अध्यवसाय रक जाते हैं व नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है। यह मंगलमय, निर्दोष और बाधा रहित है, अत: इसे धारण कर प्रत्येक मनुष्य को अपना जीवन सफल बनाना चाहिए। तृतीय अध्ययन-तृतीय संवर द्वार 'अचौर्य' प्रस्तुत अध्ययन में तृतीय संवर द्वार का निरूपण करते हुए अस्तेय का स्वरूप प्रकट किया है। इसके अंतर्गत बताया है कि जीवन पर्यन्त तृण जैसे तुच्छ पदार्थ को भी बिना पूछे ग्रहण न करना एक महती साधना है। इस व्रत के प्रभाव से मन अत्यंत संयमशील बन जाता है, परधन ग्रहण की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है। ज्ञानी भगवंतों ने इसे उपादेय कहा है। यह आस्रव-निरोध का हेतु एवं निर्भयता-प्रदाता है। इसे साधुजनों का धर्माचरण माना है। अनेक गुणों का जनक होने से इसके धारण व पालन से इस लोक और परलोक में उपकार होने का ग्रंथकार द्वारा उल्लेख किया गया है। __ इसी के साथ अस्तेय के आराधक कौन नहीं, का परिचय देते हुए तप:स्तेन, वचःस्तेन , रूपस्तेन, आचारस्तेन, भावस्तेन का उल्लेख किया है, साथ ही अस्तेय का आराधक कौन, के अंतर्गत बनाया है कि जो वस्त्र, पात्रादि, धर्मोपकरण, आहार-पानी आदि के संग्रहण व संविभाग में कुशल हो जो बाल, रुग्ण, वृद्ध, तपस्वी, प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय, साध, कुल, गण व संघ की प्रसन्नता के लिए 10 प्रकार की सेवा करने वाला हो व निर्जरा का अभिलाषी हो तथा निषिद्ध आचरणों से सदा दूर रहता हो वह अस्तेय का आराधक होता है। इसके पश्चात् अचौर्यव्रत की आराधना का फल एवं इसके रक्षणार्थ 5 भावनाओं-विविक्तवसति (निर्दोष उपाश्रय), अनुज्ञात संस्तारक (निर्दोष संस्तारक), शय्या परिकर्मवर्जन, अनुज्ञात भक्तादि, साधर्मिक विनय आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन उपलब्ध है। इस धर्म द्वार को जो मुनिजन तीन करण, तीन योग से जीवनपर्यन्त पालते हैं उनके अशुभ अध्यवसाय रुक जाते है, नवीन कर्मों का बंधन नहीं होता, संचित कर्मों की निर्जरा होती रहती है। समस्त अरिहंत भगवंतों ने इसका पालन किया हैं। अन : मंगलमय है! चतुर्थ अध्ययन--- चतुर्थ संवर द्वार 'ब्रह्मचर्य' प्रस्तुत अध्ययन में सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य की महिमा का गान एवं उसके स्वरूप का निरूपण किया है। आर्य सुधर्मा स्वामी ने इसकी महत्ता को प्रकट करते हुए कथन किया है कि ब्रह्मचर्य तपों, नियमो, ज्ञान--दर्शन-चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। यह हिमवान पर्वत से भी महान और तेजवान है, गंभीर है . मनुष्य के अंत:करण को स्थिर करने वाला, साधुजनों द्वार आसेवित और मोक्ष क मार्ग है, उत्तम गुणों वाला व सुख रूप है, सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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