Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Sobhagmal Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 5
________________ | 226 - जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक प्रथम श्रुत-स्कध प्रथम अध्ययन-प्रथम आसव द्वार 'हिंसा' इस अध्ययन में प्राणवध रूप प्रथम आस्रव 'हिंसा' का वर्णन है वीतराग जिनेश्वर देव ने हिंसा को पाप रूप अनार्य कर्म और दुर्गति में ले जाने वाला बताया है। इसके अंतर्गत प्राण वध का स्वरूप. प्राणवध के कलुष फल के निर्देशक ३० नाम, पापियों का पाप कर्म जिसमें असंयमी, अविरति. मन-वाणी तथा काय के अशुभ योग वाले जीवों द्वारा जलचर, स्थलचर चतुष्पद, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प, नभचर आदि त्रस जीवों के अस्थि, मांस चर्म एवं अंगों की प्राप्ति कर शरीर, भवन आदि की शोभा बढ़ाने हेतु की जाने वाली हिंसा का निरूपण, पृथ्वीकायिक, अप्, तेजस्, वायु, वनस्पति आदि स्थावरकायिक जीवों की सकारण व अकारण की जाने वाली हिंसा का निरूपण एवं हिंसक जीवों का दृष्टिकोण. हिंसक जन एवं जातियों में ५० प्रकार के अनार्यों का वर्णन, हिंसा के क्रोधादि अंतरंग कारण, धर्म-अर्थ -काम के निमित्त से की जाने वाली सप्रयोजन एवं निष्प्रयोजन हिंसा, हिंसकों के उत्पत्ति स्थान, नरक के दु:खानुभव का निरूपण जिसके अंतर्गत नारकों को दिया जाने वाला लोमहर्षक दु:ख, नारक जीवों की करुण पुकार, परमाधार्मिक देवों को दिये जाने वाले घोर दुःख एवं दी जाने वाली विविध पीड़ाओं एवं यातनाओं के प्रकार, यातनाओं में प्रयुक्त शस्त्रों के प्रकार, परस्पर में वेदनाओं को उत्पन्न करते हुए नारकियों की दशा व उनके पश्चात्ताप का निरूपण, तिर्यंच योनि के दुःखों का निरूपण, चतुरिन्द्रिय से एकेन्द्रिय और सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक, अपर्याप्तक, प्रत्येक, साधारण शरीरी जीवों के दु:खों और मनुष्य भव के दुःखों का सविस्तार वर्णन किया गया है तथा बताया गया है कि हिंसा रूप पापकर्म करने वाले प्राणी नरक और तिर्यंच योनियों में तथा कुमानुष अवस्था में भटकते हुए अनंत दुःख प्राप्त करते रहते हैं। मूल में हिंसा के फल विपाक को अल्प सुख और बहुत दु:ख का कारण कहा गया है। इसका आशय यह है कि हिंसक को हिंसा करते समय प्रसन्नता होती है। शिकारी शिकार के प्राणों का हरण करके हिंसाजन्य सुख का अनुभव करता है, जो सुखाभास मात्र है, क्योंकि उसके पीछे घोर दु:ख रहा हुआ है। सुख की यह क्षणिक अनुभूति जितनी तीव्र होती है, भविष्य में उतने ही तीव्र दु:खों का अनुभव कराती है। इसका फल विपाक महाभय वाला, भयंकर, कठोर और असाता रूप है जो पल्योपम और सागरोपम आदि अनेक सहस्रों वर्षों में भोगते-भोगते छूटता है, बिना भोगे कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता है। इसलिए इस प्राणवध का 'ज्ञ' परिज्ञा स्वरूप जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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