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१२ . प्रमेयकमलमार्तण्ड कादम्बरीका उल्लेख है। बाण हर्षकी सभाके विद्वान् थे, अतः इसका उल्लेख भी होना ठीक ही है।
व्योमवती टीकाका उल्लेख करनेवाले परवर्ती ग्रन्थकारोंमें शान्तरक्षित, विद्यानन्द, जयन्त, वाचस्पति, सिद्धर्षि, श्रीधर, उदयन, प्रभाचन्द्र, वादिराज, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र तथा गुणरत्न, विशेषरूपसे उल्लेखनीय हैं।
शान्तरक्षितने वैशेषिक-सम्मत षट्पदार्थोकी परीक्षा की है। उसमें वे प्रशस्तपादके साथ ही साथ शंकरस्वामी नामक नैयायिकका मत भी पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित करते हैं। परंतु जब हम ध्यानसे देखते हैं तो उनके पूर्वपक्षमें प्रशस्तपादव्योमवतीके शब्द स्पष्टतया अपनी छाप मारते हुए नजर आते हैं। ( तुलना-तत्त्वसंग्रह पृ. २०६ तथा व्योमवती पृ० ३४३ । ) तत्त्वसंग्रहकी पंजिका ( पृ० २०६) में व्योमवती (पृ० १२९ ) के खकारणसमवाय तथा सत्तासमवायरूप उत्पत्तिके लक्षणका उल्लेख है । शान्तरक्षित तथा उनके शिष्य कमलशीलका समय ई० की आठवीं शताब्दिका पूर्वार्द्ध है । ( देखो, तत्त्वसंग्रहकी भूमिका पृ० xcvi)
विद्यानन्द आचार्यने अपनी आप्तपरीक्षा (पृ. २६) मे व्योमवती टीका (पृ० १०७ ) से समवायके लक्षणकी समस्त पदकृत्य उद्धृत की है। 'द्रव्यखोपलक्षित समवाय द्रव्यका लक्षण है' व्योमवती (पृ० १४९ ) के इस मन्तव्यकी समालोचना भी आप्तपरीक्षा (पृ. ६) में की गई है। विद्यानन्द ईसाकी नवमशताब्दीके पूर्वार्द्धवती हैं।
जयन्तकी न्यायमंजरी (पृ. २३) में व्योमवती (पृ० ६२१) के अनर्थजत्वात् स्मृतिको अप्रमाण माननेके सिद्धान्तका समर्थन किया है, साथही पृ० ६५ पर व्योमवती (पृ. ५५६ ) के फलविशेषणपक्षको स्वीकारकर कारकसामग्रीको प्रमाणमाननेके सिद्धान्तका अनुसरण किया है। जयन्तका समय हम आगे ईसाकी ९ वीं शताब्दीका पूर्वभाग सिद्ध करेंगे।
वाचस्पति मिश्र अपनी तात्पर्यटीकामें (पृ० १०८) प्रत्यक्षलक्षणसूत्र में 'यतः' पदका अध्याहार करते हैं तथा (पृ० १०२ ) लिंगपरामर्श ज्ञानको उपादानवुद्धि कहते हैं । व्योमवतीटीकामें (पृ० ५५६ ) 'यतः' पदका प्रयोग प्रत्यक्षलक्षणमें किया है तथा (पृ. ५६१) लिंगपरामर्शज्ञानको उपादानवुद्धि भी कहा है। वाचस्पति मिश्रका समय ८४१ A.D. है।
प्रभाचन्द्र आचार्यने मोक्षनिरूपण (प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ३०७ ) आत्मस्वरूपनिरूपण ( न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३४९, प्रमेयकमलमा० पृ० ११० ) समवायलक्षण (न्यायकुमु, पृ० २९५, प्रमेयकमलमा० पृ. ६०४ ) आदिमें व्योमवती (पृ. २०, ३९३, १०७) का पर्याप्त सहारा लिया है । म्वसंवेदनसिद्धिमें व्योमवतीके ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादका खंडन भी किया है। . श्रीधर तथा उदयनाचार्यने अपनी कन्दली (पृ० ४) तथा किरणावलीमें