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' प्रस्तावना
२१ इस तरह न्यायकुमुदचन्द्रके आधारभूत ग्रन्थोंमें न्यायमंजरीका नाम लिखा जा सकता है।
वाचस्पति और प्रभाचन्द्र-षड्दर्शनटीकाकार वाचस्पतिने अपना न्यायसूचीनिबन्ध ई० ८४१ में समाप्त किया था । इनने अपनी तात्पर्यटीका (पृ० १६५) में सांख्यों के अनुमान के मात्रामात्रिक आदि सात भेद गिनाए हैं और उनका खंडन किया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४६२ ) में भी सांख्योंके अनुमानके इन्हीं सात भेदोंके नाम निर्दिष्ट हैं । वाचस्पतिने शांकरभाष्यकी भामती टीकामें अविद्यासे अविद्याके उच्छेद करने के लिए “यथा पयः पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति, विषं विषान्तरं शमयति खयं च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोऽन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिन्दत् स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति ..." इत्यादि दृष्टान्त दिए हैं। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ६६ ) में इन्हीं दृष्टान्तों को पूर्वपक्ष में उपस्थित किया है। न्यायकुमुदचन्द्रके विधिवादके पूर्वपक्षमें विधिविवेकके साथही साथ उसकी वाचस्पतिकृत न्यायकणिका टीकाका भी पर्याप्त सादृश्य पाया जाता है । वाचस्पतिके उक्त ई० ८४१ समयका साधक एक प्रमाण यह भी है कि इन्होंने तात्पर्यटीका (पृ० २१७) में शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रह (श्लो० २००) से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है-"नर्तकी धूलताक्षेपो न ह्येकः पारमार्थिकः । अनेकाणुसमूहत्वात् एकलं तस्य कल्पितम् ॥” शान्तरक्षितका समय ई० ७६२ है।
शवर ऋषि और प्रभाचन्द्र-जैमिनिसूत्र पर शावरभाष्य लिखने वाले महर्षि शबरका समय ईसाकी तीसरी सदी तक समझा जाता है। शाबरभाष्यके ऊपर ही कुमारिल और प्रभाकर ने व्याख्याएँ लिखी हैं । आ० प्रभाचन्द्रने शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद, आदिमें कुमारिलं के श्लोकवार्तिकके साथ ही साथ शाबरभाष्य की दलीलों को भी पूर्वपक्षमें रखा है । शावरभाष्य से ही "गोरित्यत्र कः शब्दः ? गकारौकारविसर्जनीया इति भगवानुपवर्षः" यह उपवर्ष ऋषि का मत प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ४६४ ) में उद्धृत किया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २७९) में शब्दको वायवीय माननेवाले शिक्षाकार मीमांसकोंका. मत भी शाबरभाष्यसे ही उद्धृत हुआ है। इसके सिवाय न्यायकुमुदचन्द्र में शाबरभाष्यके कई वाक्य प्रमाणरूपमें और पूर्वपक्ष में उद्धृत किए गए हैं।
कुमारिल और प्रभाचन्द्र-भट्ट कुमारिलने शाबरभाष्य पर मीमांसाश्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक और टुप्टीका नामकी व्याख्या लिखी है कुमारिलने अपने तन्त्रवार्तिक (पृ० २५१-२५३ ) में वाक्यपदीयके निम्नलिखित श्लोककी समालोचना की है
"अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् ।
अपूर्वदेवतास्वर्गः सममाहुर्गवादिषु ॥” [वाक्यप० २।१२१] इसी तरह तन्त्रवार्तिक (पृ० २०९-१० ) में वाक्यपदीय (१५) के