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प्रस्तावना -
लिखा है। पूज्यपादकी संस्कृत सिद्धभक्तिसे 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः' पद भी न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें जहां कहीं भी व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण देनेकी आवश्यकता हुई है वहां प्रायः जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठसेही सूत्र उद्धृत किए गए हैं।
धनञ्जय और प्रभाचन्द्र-'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास' के लेखकद्वयने धनञ्जयका समय ई० १२ वें शतकका मध्य निर्धारित किया है (पृ० १७३ )। और अपने इस मतकी पुष्टिके लिए के. बी. पाठक महाशयका यह मत भी उद्धृत किया है कि-"धनञ्जयने द्विसन्धान महाकाव्यकी रचना ई० ११२३ और ११४० के मध्यमें की है।" डॉ० पाठक और उक्त इतिहास के लेखकद्वय अन्य कई जैन कवियोंके समय निर्धारणकी भांति धनञ्जयके समयमें भी भ्रान्ति कर बैठे हैं। क्योंकि विचार करनेसे धनञ्जयका समय ईसाकी ८ वीं सदीका अन्त और नवींका प्रारम्भिक भाग सिद्ध होता है
१ जल्हण (ई. द्वादशशतक) विरचित सूक्तिमुक्तावलीमें राजशेखरके नामसे धनञ्जयकी प्रशंसामें निम्न लिखित पद्य उद्धृत है- ....,
"द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनञ्जयः ।।
यया जातं फलं तस्य स तां चक्रे धनञ्जयः ॥" इस पद्यमें राजशेखरने धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका मनोमुग्धकर सरणिसे निर्देश किया है। संस्कृत साहित्यके इतिहासके लेखकद्वय लिखते हैं कि-"यह राजशेखर प्रबन्धकोशका कर्ता जैन राजशेखर है । यह राजशेखर ई० १३४८ में विद्यमान था।" आश्चर्य है कि १२ वीं शताब्दीके विद्वान् जल्हणके द्वारा विरचित ग्रन्थमें उल्लिखित होने वाले राजशेखरको लेखकद्वय १४ वीं शताब्दीका, जैन राजशेखर बताते हैं ! यह तो मोटी बात है कि १२ वीं शताब्दीके जल्हणने १४ वीं शताब्दीके जैन राजशेखरका उल्लेख न करके १० वीं शताब्दीके प्रसिद्ध काव्यमीमांसाकार राजशेखरका ही उल्लेख किया है । इस उल्लेखसे धनायका समय ९ वीं शताब्दीके अन्तिम भागके बाद तो किसी भी तरह नहीं जाता । ई० ९६० में विरचित सोमदेवके यशस्तिलकचम्पूमें राजशेखरका उल्लेख होनेसे इनका समय करीब ई० ९१० ठहरता है। . • २ वादिराजसूरि अपने पार्श्वनाथचरित (पृ. ४) में घनायकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं- . . . . “अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहुः। ।
बाणा धनञ्जयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् ॥" ...: ...इस श्लिष्ट श्लोकमें अनेकमेदसन्धानाः'. पदसे धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्य' का उल्लेख बड़ी कुशलतासे किया गया है। वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित ९४७. शक