Book Title: Prakrit Gadya Padya Saurabh Part 2
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 12
________________ 8. हे निर्धनता ! तुम्हारे गुण धीर पुरुषों के द्वारा छुपाए जाते हुए भी अतिथियों (की उपस्थिति) में, उत्सवों पर और कष्टों के होने पर प्रकट हो जाते हैं। 9. हे निर्धनता ! तुम्हारे लिए नमस्कार, (क्योंकि) जिसके (तुम्हारे) प्रसाद से ऐसी ऋद्धि (मिली) (है) (कि) (मैं) सब लोगों को देखता हूँ, (पर) वे (सब) लोग मुझे नहीं देखते हैं। हे निपुण निर्धनता ! जो जो गुणी (हैं), जो जो भी आत्म-सम्मानी (हैं), जिन्होंने विद्वानों में सम्मान (पाया है), तुम उनके लिए अनुराग सहित होती हो। 11. योग-सिद्ध देखे जाते हैं, कितने ही अंजण-सिद्ध भी देखे जाते हैं, (किन्तु) वे मनुष्य मुझ दारिद्र-योग-सिद्ध को नहीं देखते हैं। 12. सर्दी में गरीब कुटुम्ब कमल की लीला को धारण करता है। (वह) अस्त होते हुए सूर्य में सिकुड़ जाता है (और) उदय होते हुए (सूर्य में) फैल जाता है। 13. (तुम) धर्म में अनुलग्न हो, रहो ! हे राजा ! अब (हम) जाते हैं, क्योंकि) हे प्रभो! तुम्हारी उदारता कभी नहीं देखी गई, जैसे चित्रित हाथी के (मस्तक से टपकने वाला रस कभी नहीं देखा गया है)। 14. युद्ध-शक्ति के खण्डित होने पर, सेना के घिरे हुए होने पर (और) स्वामी के उत्साह-रहित (किये गए) होने पर उच्च कुलों में उत्पन्न योद्धा निज भुजाओं के पराक्रम बल से (ही) स्थिर रहते हैं। 15. . दृढ़-संकल्प वाले दल (सुभटों) का (यदि) धन क्षीण होता है, (तो) स्वप्न में भी आत्म-सम्मान (क्षीण) नहीं (होता), शरीर (यदि) क्षीण होता है, (तो स्वप्न में भी) प्रताप क्षीण नहीं होता, (यदि) रूप नष्ट होता है, (तो स्वप्न में भी) स्फूर्ति (नष्ट) नहीं (होती)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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