Book Title: Prakrit Bhasha ka Tulnatmak Vyakaran
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 8
________________ प्रथम संस्करण का प्रास्ताविक लगभग बीस वर्ष के अपने अध्यापन के अनुभव को ध्यान में रखकर यह पुस्तक तैयार किया गया है । इसका प्रारंभ करते समय यह दृष्टि थी कि प्राकृत के प्रारंभिक विद्यार्थियों के लिए ही इसे लिखा जाय परंतु दो अध्याय पूरे करने के बाद यह ख्याल आया कि उच्च-स्तरीय विद्यार्थियों के लिए भी इसे उपयोगी बनाया जाय एवं इस में सभी प्राकृतों (पालि- प्राकृत- अपभ्रंश) का समावेश किया जाय तथा उन्हें बन सके वहाँ तक तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाय । आगे चलकर अध्याय आठ में देश्य शब्दों का विश्लेषण भी जोड़ा गया है । अध्याय नौ तो इसीलिए जोड़ा गया है कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के विषय में हमारा जो पुराना ख्याल है उसमें संशोधन की आवश्यकता है । प्राकृत के प्रारंभिक विद्यार्थियों के लिए ब्लेक टाइप में दी गयी सामग्री पर्याप्त मानी जानी चाहिए जबकि उच्चस्तरीय अध्ययन के लिए सभी सामग्री उपयोगी सिद्ध होगी । विद्वान अध्यापक के मन में एक प्रश्न स्वभावतः उत्पन्न होगा कि मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषाओं के विकास को ध्यान में रखते हुए पालि भाषा को प्रथम स्थान न देकर महाराष्ट्री प्राकृत को यह स्थान क्यों दिया गया है । प्रश्न उचित है परंतु हमारा स्पष्टीकरण सिर्फ इतना ही है कि इस पुस्तक का आयोजन प्राकृत के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर किया गया है और इसीलिए सरलतम भाषा महाराष्ट्री को प्रथम स्थान दिया गया है और बाद में अन्य भाषाओं को और वह भी काल-क्रम की दृष्टि से नहीं परंतु सुविधा और सरलता को ध्यान में रखकर उनके विषय में लिखा गया है । इसी कारण पहले अध्याय में मात्र महाराष्ट्री प्राकृत के ध्वनि-परिवर्तन के नियम दिये गये हैं और दूसरे अध्याय में अन्य प्राकृतों की विशिष्टताएँ दर्शायी गयी है । तीसरे अध्यया से पद-रचना का विषय लिया गया है जिसमें प्राकृत एवं पालि के नाम - रूप साथ साथ दिये गये हैं । अपभ्रंश के नाम-रूप बाद में अलग से जोड़े गये हैं। चौथे अध्याय (सर्वनाम) से प्राकृत, पालि. एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary..org

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