Book Title: Prakrit Bhasha ka Tulnatmak Vyakaran
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ प्रारंभिक उपलब्ध साहित्य में वेद-साहित्य भारतवर्ष का सबसे प्राचीन साहित्य है । वेद-संहिताओं में भाषा की एक-रूपता नहीं है क्योंकि उस काल में जनता द्वारा जो भाषा बोली जाती थी उसकी स्थानीय विविधता के दर्शन इस साहित्य में होते हैं । इस वैविध्य को दूर करके जन-भाषा को संस्कार देकर उसमें जो एकरूपता लायी गयी उसे शिष्ट भाषा के रूप में संस्कृत कहा गया । जैसे जैसे समय बीतता गया वैसे वैसे विविधतावाली जनता की पुरानी भाषा बदलती गयी और उसमें से अनेक प्राकृत जन-भाषाओं का विकास होता गया । इस प्रकार संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं का मूल उत्पत्ति स्त्रोत जन-भाषा हो रहा । इसीलिए दोनों भाषाओं के बीच में अनेक समानताएँ और विषमताएँ प्राप्त होती हैं । स्वाभाविक मातृभाषाएँ अथवा जन-भाषाएँ अनेक प्राकृतों के रूप में प्रचलित हुईं और उन्हें संस्कार देकर जो जो रूप बनाये गये वे शिष्ट भाषाओं के रूप में प्रचलित हुईं । प्राकृत भाषाओं का क्रमपूर्वक विकास इस प्रकार है : प्रथम स्तर : सबसे पहले परिवर्तन इस प्रकार पाये जाते हैं : (i) ऋ = अ, इ, उ; ऐ = ए (आइ-अइ-ए); औ = ओ (आउ अउ-ओ)। (ii) तीन संयुक्त व्यंजनों के बदले में सिर्फ दो ही संयुक्त व्यंजनों का प्रयोग । (iii) संयुक्त व्यंजनों में स्वर-भक्ति, समीकरण की प्रक्रिया और अन्य परिवर्तन । द्वितीय स्तर : अघोष व्यंजनों को घोष बनाना । तृतीय स्तर : मध्यवर्ती अल्पप्राण का लोप और महाप्राण का ह् में परिवर्तन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 144