Book Title: Prakirnak Sahitya Ek Parichay Author(s): Sushma Singhvi Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 5
________________ 464 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क ग्रहण, उच्छ्वास- निःश्वास और अवभिज्ञान से सम्बन्धित तेरह प्रश्न पूछती है (गाथा ७ से १२) | श्रावक विस्तार से उनके उत्तर देता है (गाथा १२ से २७६) । तदुपरान्त गाथा २७७ से २८२ में ईषत्प्राग्भारपृथ्वी का वर्णन है । २८३ से ३०९ तक की गाथाओं में सिद्धों के स्थान - संस्थानादि, उपयोग, सुख तथा ऋद्धि का निरूपण है तथा अन्त में ३१० - ३११ में उपसंहार तथा प्रस्तुत प्रकीर्णक के कर्ता इसिवालिय ऋषिपालित स्थविर का नामोल्लेख है। ➖➖ देवेन्द्रस्तव की विषयवस्तु आगम-साहित्य में स्थानांगसूत्र. समवायांगसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जीवाभिगमसूत्र आदि में अनेक स्थलों पर उपलब्ध होने से तुलनीय है।" एक उदाहरण प्रस्तुत है : ६ ५। तीसा १ चत्तालीसा २ चोत्तीसं चेव सयसहस्साई ३ ॥ छायाला ४ छतीसा ५-१० उत्तरओ होंति भवणाई ।। (प्रज्ञापनः सूत्र १८७, गाथा १४१) तीसा चत्तालीसा चउतीसं चेव सयसहस्साइं । छत्तीसा छायाला उत्तरओ हुँति भवणाई ।। (देविंदत्थओ, गाथा ४२ ) अर्थात् उत्तर दिशा की ओर (असुर कुमारों के) तीस लाख, (नाग कुमारों के) चालीस लाख (सुपर्ण कुमारों के) चौंतीस लाख, (वायु कुमारों के) छियालीस लाख और (द्वीप, उदधि, विद्युत, स्तनित एवं अग्नि इन पाँच कुमारों के, प्रत्येक के ) छत्तीस लाख भवन होते हैं। 2. तंदुलवेयालिय पइण्णय : (247 तंदुल वैचारिक प्रकीर्णक एक गद्य-पद्य मिश्रित रचना है। हा आलापक भगवती से भी लिये गये है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख नंदी एवं पाक्षिकसूत्र में प्राप्त होना है। नंदीसूत्रचूर्णि और वृत्ति में इसका परिचय नहीं दिया गया है, किन्तु पाक्षिक सूत्र की वृत्ति में परिचय में कहा गया है कि सौ वर्ष की आयुवाला मनुष्य जितना चावल प्रतिदिन खाता है उसकी जितनी संख्या होती है उसी के उपलक्षण रूप (प्रत्येक विषय की) संख्या विचार को तंदुल वैचारिक कहते हैं। आवश्यक चूर्णि तथा निशीथ-सूत्र चूर्णि में इस प्रकीर्णक का उल्लेख उत्कालिक सूत्र के रूप में हुआ है । दशवैकालिक चूर्णि में जिनदासगणि महत्तर ने "कालदसा 'बाला मंदा, किड्डा' जहा "तंदुलवेयालिए" कहकर नंदुल वैचारिक का उल्लेख किया है। तंदुलवैचारिक के वर्णनों में स्थानांग, भगवती, अनुयोगद्वार और औपपातिक सूत्र आदि के अंशों से साम्य होने तथा भाषा विषयक अध्ययन एवं अन्य ग्रन्थों में इस प्रकीर्णक के उल्लेखों के आधार पर विद्वानों ने इसका समय १९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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