Book Title: Prakirnak Sahitya Ek Parichay Author(s): Sushma Singhvi Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 8
________________ प्रकीर्णक साहित्य एक परिचय शिष्यगुण लघुतावाला, विनीत, ममत्ववाला, गुणज्ञ, सुजन, सहनशील, आचार्य के अभिप्राय का ज्ञाता तथा षड्विध विनय को जानने वाला, दस प्रकार की वैयावृत्य में तत्पर, स्वाध्यायी आदि शिष्यगुणों का निरूपण गाथा ३७ से ५३ तक किया गया है। विनयनिग्रह गुण के माध्यम से गाथा ५४ से ६७ में विनयगुण को मोक्ष का द्वार बताया गया है। बहुश्रुत होने पर भी विनयहीन होने पर वह अल्पश्रुत पुरुष की श्रेणी में ही परिगणित होता है। अंधपुरुष के सामने लाखों दीपक के निरर्थक होने के समान विनयहीन द्वारा जाना गया विपुल श्रुत भी निरर्थक कहा गया है। इसी प्रकार क्रमशः ज्ञानगुण ( गाथा ६८ से ९९), चारित्रगुण ( गाथा १०० - ११६) तथा मरणगुण ( गाथा ११७ – ७३) आदि का यथार्थ निरूपण प्रस्तुत किया गया है। ज्ञान और चारित्रयुक्त पुरुष धन्य हैं, गृहपाश के बंधनों से मुक्त होकर जो पुरुष प्रयत्नपूर्वक चारित्र का सेवन करते हैं वे धन्य हैं। अनियंत्रित अश्व पर आरूढ़ होकर बिना तैयारी के यदि कोई शत्रु सेना का मुकाबला करता है तो वह योद्धा और अश्व दोनों संग्राम में पराजित होते हैं तथैव मृत्यु के समय पूर्व तैयारी के बिना परीषह सहन असंभव है ऐसा निर्देश कर चन्द्रावेध्यक नाम को सार्थक करते हुए इस प्रकीर्णक में मृत्यु पूर्व साधना का विस्तार से निरूपण किया है। अन्यत्र चित्त रूपी दोष के कारण यदि कोई व्यक्ति थोड़ा भी प्रमाद करता है तो वह धनुष पर तीर चढ़ाकर भी चन्द्रवेध को नहीं वेध पाता है । चन्द्रवेध की तरह मोक्ष मार्ग में प्रयत्नशील आत्मा को सदैव ही अप्रमादी होकर निरन्तर गुणों की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिये । ४. गणिविज्जा (२२) (२३) (२४) * गणिविद्या प्रकीर्णक का उल्लेख, नंदिसूत्र तथा पाक्षिक सूत्र में है। नंदिसूत्र की चूर्णि में इसका परिचय निम्न प्रकारेण है Jain Education International - "सबालवुड्ढाउलो गच्छो गणो, सो जस्स अत्थि सो गणी, विज्जत्तिणाणं, तं च जोइसनिमित्तगतं णातुं पसत्थेसु इमे कज्जे करेति, तंजहा - पव्वावणा १ सामाइयारोवणं २ उवट्ठावणा ३ सुत्तस्स उस समुदेसाऽणुणातो ४ गणारोवणं ५ दिसापुण्णा ६ खेत्तेसु य गिग्गमपवेसा ६ एवमाइयाकज्जा जेसु तिहि-करण - णक्खत्त मुहुत्तजोगेसु य जे जत्थ करणिज्जा ते जत्थअज्झयणे वण्णिजंति तमज्झयणं गणिविद्या" अर्थात्-गण का अर्थ है समस्त बालवृद्ध मुनियों का समूह। जो ऐसे गण का स्वामी है वह गणी कहलाता है। विद्या का अर्थ होता है ज्ञान । ज्योतिषनिमित्त विषयक ज्ञान के आधार पर जिस ग्रन्थ में दीक्षा, सामायिक का आरोपण, व्रत में स्थापना, श्रुत सम्बन्धित उपदेश, समुद्देश, अनुज्ञा, गण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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