Book Title: Prakarana Ratnakar Part 1
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 4
________________ . प्रस्तावना. वाथी एकांत वादिने रोगीने अपथ्यनी जेम अहित रूप थाय. एकांतवादीने तो बधुं श्रहित रूप थवा योग्य बे; पण व्यवहार बक्षमा राखी, तेनी जाणे-जाणे उपेक्षा कर्याविना अपेक्षा पूर्वक वांचनार, विचारनारा थात्मार्थीउने था ग्रंथ बहु उपकारनु कारण बे. निश्चय लक्षमा राखी व्यवहारे विचर ए श्रात्मार्थीतुं कर्त्तव्य ; ए निश्चय शुं बे,-ए जाणीने लक्षमा राखवानुं था ग्रंथ उत्तम साधन बे. वस्तुनुं सापेक्षपणुं विचारनारने था श्रने श्रावा ग्रंथो बहु लाजरूप बे. अव्यनां स्वरूपना जिज्ञा. सुर्डने था ग्रंथ परमाणंदमुं कारणले. ज्ञेय, हेय, श्रादेय, तत्त्व, प्रव्य, गुणश्रेणि-ए वगेरेनुं वस्तुना मूल धर्मने श्रवलंबीने कर्ता पुरुषे एवं मनहर थने असरकारक निरूपण कर्यु बे, के तत्त्वचिजीवो श्रानंदमां गरकाव थ रहे बे. बंद पण शूरातन उपजावे, श्रात्माने जागृत राखे एवा मोटे नागे सवैया एकतीसा अने तेश्सा राख्या बे. ए ग्रंथ केवी पहातिए योजायलो डे, तेनुं कंश्क सूचवन अनुक्रमणिकाथी थ शकशे. श्रा नामनो मूल ग्रंथ प्राकृत नाषामां श्री कुंदकुंदाचार्ये रच्यो बे; ते परथी संस्कृतमां श्री अमृतचंजाचार्ये योज्यो; अने ते परथी संस्कृत-प्राकृतना थजाण एवा था कालना जीवोना उपकार अर्थे श्री बनारसी दासे हिंदीनाषामां योज्यो बे. श्रा चोथा नाग साथे श्री प्रकरण रत्नाकरनो प्रथम नाग पण संपूर्ण थाय बे. जैननाश्योमा तत्त्व जिज्ञासा वृद्धिपामे, तेउनु श्रात्महित थाय, एवी प्रज्जु पासे प्रार्थना करी, श्रा ग्रंथ बहु विनयपूर्वक वाचवा विचारवाने श्रमे एमने विनविये बिये. इति शं. मुंबश्-संवत् १ए६० कार्तिकी पूर्णिमा. ला प्रसिधकर्ता. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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