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सुन्दरभूमिमें कर्तव्यको चित्त में धारण कर वे किसी सुन्दर कन्या की खोजमें वहाँ से बाहिर निकले । ७१-७२। प्रथम ही नारदजी विजयार्धपर गये । वहाँ उन्होंने विद्याधरों की राजधानी देखी । विद्याधरों के राजासे आदरपूर्वक मिले और उनकी आज्ञा लेकर रणवासमें गये । परन्तु वहाँ कोई भी ऐसी विवा हिता विवाहिता स्त्री न देखी जो सुन्दरतामें सत्यभामाके पदके अँगूठे की भी समानता कर सके । इसप्रकार विद्याधरोंकी दोनों श्रेणियों को देखकर नारदजी बहुत ही खेद खिन्न हुए और विचारने लगे कि मैं क्या करू ? कहाँ जाऊ और कहाँ मैं ऐसी सुन्दरकन्याको देखूं जो सत्यभामा के घमंड को चकचूर करनेमें समर्थ हो । जब ऐसी सुंदरी विद्याधरोंके महलोंमें ही नहीं है, तो भूतलपर कहाँ मिल सकती है । ७३-७७। इसप्रकार नारदजी चित्तमें बहुत ही व्याकुल हुये । पश्चात् भूतलके देशों में भी शोधकर चिन्ताको निवारण करना उन्होंने उचित समझा ।७८ । सो उसीप्रकार वे भूलोक में प्राप्त हुये और भूमिगोचरी राजाओं की राजधानी भी उन्होंने देखडाली । परन्तु कहीं भी ऐसी कन्या देखने में नहीं आई, जो सत्यभामा की समानता कर सके। इस कारण नारदमुनि अत्यन्त खेदखिन्न तथा उदास हुये और पृथ्वीतलपर परिभ्रमण करने लगे । ७६ - ८० ।
एक दिन नारदजी चहुँओर देखते हुए आकाशमार्ग से जा रहे थे । दैववशात् वे कुण्डनपुर नामके एक रमणीक नगरमें प्राप्त हुए, जो लक्ष्मीका निवास तथा विद्यावती रूपवती गुणवती स्त्रियों का स्थान था । इसनगर में भीष्म नामका राजा राज्य करता था, जो राज्यसंबंधी मुकुट आदि आभूषणोंसे शोभायमान था । यह राजा सर्वमान्य, सुप्रसिद्ध, शत्रुओंका जीतनेवाला, शरणागत प्राणियोंका रक्षक, रूप सौन्दर्य से मंडित और शारीरिक शुभ लक्षणोंसे सुशोभित था । ८१-८४ । इस राजाकी श्रीमती नामकी रानी थी, जो गुणवती, मायाचारवर्जित सुन्दरताकी खानि और जगद्विख्यात थी । ८५ । नारदको सभाके भीतर या जानकर राजा भीष्म सिंहासनसे उठा और विनयसहित उनके सन्मुख गया | ८६ | उसने
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चरित्र
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