Book Title: Prachin evam Arvachin Tristutik Gaccha Author(s): Shivprasad Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 4
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - इतिहास अभयसिंहसूरि अमरसिंहसूरि हेनरत्नसूरि अमररत्नसूरि सोमरत्नसूरि गुणनिधानसूरि उदयरत्नसूरि सौभाग्यसुन्दरसूरि धर्मरत्नसूरि मेघरत्नसूरि जैसा कि स्पष्ट है कि उक्त दोनों पट्टावलियां आगमिकगच्छ के प्रकटकर्ता शीलगुणसूरि से प्रारंभ होती है। इनमें प्रारंभ के ४ आचार्यों के नाम भी समान है, अत: इस समय तक शाखाभेद नहीं हुआ था, ऐसा माना जा सकता है। आगे यशोभद्रसूरि के तीन शिष्यों - सर्वाणंदसूरि, अभयदेवसूरि और वज्रसेनसूरि को पट्टावलीकार मुनिसागरसूरि ने एक सीधे क्रम में रखा है, वहीं धंधूकीया शाखा की पट्टावली में उन्हें यसोभद्रसूरि का शिष्य बतलाया गया है। सर्वाणंदसूरि की शिष्य परंपरा में जिनचंद्रसूरि हुए, शेष दो आचार्यों अभयदेवसूरि और वज्रसेनसूरि की शिष्यपरंपरा आगे नहीं चली। जिनचंद्रसूरि के शिष्य विजयसिंहसूरि का दोनों पट्टावलियो में समान रूप से उल्लेख है। पट्टावलीकार मुनिसागरसूरि ने जिनचन्द्रसूरि के दो अन्य शिष्यों हेमसिंहसूरि और रत्नाकरसूरि का भी उल्लेख किया है, परंतु उनकी परंपरा आगे नहीं चली। विजयसिंहसूरि के शिष्य अभयसिंहसूरि का नाम भी दोनों पट्टावलियों में समान रूप से मिलता है। अभयसिंहसूरि के दो शिष्यों अमरसिंहसूरि और सोमतिलकसूरि से यह गच्छ दो शाखाओं में विभाजित हो गया। अमरसिंहसूरि की शिष्यसंतति आगे चलकर धंधूकीया शाखा और सोमतिलकसूरि की शिष्य परंपरा विडालंबीया शाखा के नाम से जानी गई। यह उल्लेखनीय है कि प्रतिमा-लेखों में कहीं भी इन शाखाओं का उल्लेख नहीं हुआ है, वहां सर्वत्र केवल आगमिकगच्छ का ही उल्लेख है, किन्तु कुछ प्रशस्तियों में स्पष्ट रूप से इन शाखाओं का नाम मिलता है तथा दोनों शाखाओं की पट्टावलियां तो स्वतंत्र रूप से मिलती ही हैं, जिनकी प्रारंभ में चर्चा की जा चुकी है। अभयसिंहसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित एक जिनप्रतिमा पर वि.सं. १४२१ का लेख उत्कीर्ण है, अत: यह माना जा सकता है कि वि.सं. १४२१ के पश्चात् अर्थात् १५वीं शती के मध्य के आसपास यह गच्छ दो शाखाओं में विभाजित हुआ होगा। चूँकि इस गच्छ के इतिहास से संबद्ध जो भी साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं, वे १५वीं शती के पूर्व के नहीं हैं और इस समय तक यह गच्छ दो शाखाओं में विभाजित हो चुका था, अतः इन दोनों शाखाओं का ही अध्ययन कर पाना संभव है। शीलगुणसूरि तक के ८ पट्टधर आचार्यों में केवल अभयसिंहसूरि का ही वि.सं. १४२१ के एक प्रतिमा लेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक anoranorandednoranorandirbrowonlowdroidroraniwanirbidrobM ७५Hoodiacondardoiidnidrabinirdroidwardd-ordorand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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