Book Title: Prachin Stavanavali
Author(s): Rampal Yati
Publisher: Umravsinh Dungariya

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Page 26
________________ . ( २३ ) जो छिन कीजे नाश । ताछिन यह परमातमा आपहि लहे प्रकाश ॥ १०॥ प्रातम सो परमातमा परमातम सो सिद्ध । बीच की दुविधा मिट गई प्रगट भई निज ऋद्धि ॥११॥ मैं ही सिद्ध परमातमा मैं ही बातम राम । मैं ही ज्ञाता ज्ञेयको चेतन मेरो नाम ॥१२॥ मैं अनंत सुखको धनी सुखमें मोहि सुभाय। अवि नाशी आनन्दमय सो ही त्रिभुवनराय ॥१३॥ शुद्ध हमारो रूप है शोभित सिद्ध समान । गुण अनन्त करि संयुत चिदानन्द भगवान ॥ १४ ॥ जैसा शिव क्षेत्र में बसे तैसा या मनमांहि ! निश्चय दृष्टि निहारतां फिर रंच कहु नांहि ॥ १५ ॥ करमन के संयोग तै भए तीन प्रकार । एक प्रातमा द्रव्य को कर्म न टारनहार ।। १६ ।। कर्म संघाती आदि के जोर न विसात । पाई कला विवेक की राग द्वेष बिन जात ॥ १७॥ कर्मन के जरे राग जरे राग जरे सब जर जाय । प्रगट होय परमातमा भैया तुम उपाय ॥१८॥ परमातम पद को धनी रङ्क भयो बिललाय । राग द्वेष की प्रीति सों जनम अकारथ जाय ॥ १६ ॥ राग द्वेष से प्रीति तुम भूल करो जी न रंच। परमातम पद ढांकि के तुम्हें कीनो मतिमन्द ॥ २० ॥ जप तप संयम भला राग द्वेष जो नांहि । राग द्वेष सब जागते ये सब सोये जांहि ॥ २१ ॥ राग द्वेष के नाश से परमातम परकास । राग द्वेष के भास से परमातम पद नास ॥२२॥ जो परमातम पद चहे तो तू राग निवार। देख संयोगी स्वामि को अपने हिये बिचार ॥ २३ ॥ लाख बात की बात

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