Book Title: Prachin Malva ke Jain Vidwan aur unki Rachnaye
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 3
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासइन सब उल्लेखों से सुनिश्चित है कि अमितगति धारा नगरी और देवसेन-अमितगति(प्रथम) नेमिषेण - माधवसेन - उसके आसपास के स्थानों में रहे थे। उन्होंने प्रायः अपनी सभी अमितगति(द्वितीय) और शिष्यपरम्परा- शांतिषेण-अमरसेन - रचनायें धारा में या उसके समीपवर्ती नगरों में लिखीं। बहुत श्रीषेण-चन्द्रकीर्ति-अमरकीर्ति इस प्रकार रही है।२६ संभव है कि आचार्य अमितगति के गुरुजन धारा या उसके ११. माणिक्यनन्दी .. ये धारा निवासी थे और वहाँ दर्शन समीपवर्ती स्थानों में रहे हों। अमितगति ने सं. १०५० से १०७३ ।। शास्त्र का अध्ययन करते थे। इनकी एक मात्र रचना परीक्षामुख तक २३ वर्ष के काल में अनेक ग्रंथों की रचना वहाँ की थी।५ नामक एक न्यायसूत्र ग्रन्थ है। जिसमें कुल २०७ सूत्र है। ये सूत्र कीथ१६ के अनुसार अमितगति क्षेमेन्द्र से अर्धशताब्दी सरल सरस और गम्भीर अर्थ द्योतक है। माणिक्यनन्दी ने आचार्य पहले हुए थे। उनके 'सुभाषितरत्नसंदोह' की रचना ९९४ वि.सं. में अकलंक देव के वचनसमुद्र का दोहन करके जो न्यायामृत हुई थी और उनकी धर्मपरीक्षा बीस वर्ष के अनन्तर लिखी गई। निकाला वह उनकी दार्शनिक प्रतिभा का द्योतक है।१८ १.सुभाषितरत्नसंदोह में ३२ परिच्छेद हैं जिनमें प्रत्येक में १२. नयनन्दी : ये माणिक्यनन्दी के शिष्य थे। इनके द्वारा साधारणतः एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है। इसमें जैन- रचित 'सुदर्शनचरित्र' एक खण्डकाव्य है जो महाकाव्यों की श्रेणी नीतिशास्त्र के विभिन्न दष्टिकोणों का आपाततः विचार किया में रखने योग्य है। इसकी रचना वि.सं. ११०० में हुई।१९ सकल गया है, साथ साथ ब्राह्मणों के विचार और आचार के प्रति विहिविहाण इनकी दूसरी रचना है जो एक विशाल काव्य है। इसकी प्रवृत्ति विसंवादात्मक है। प्रचलित रीति के अनुसार स्त्रियों इसकी प्रशस्ति में इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की गई पर खूब आक्षेप किये गये है और एक पूरा परिच्छेद वेश्याओं के है। उसमें कवि ने ग्रन्थ बनाने के प्रेरक हरिसिंह मुनि का उल्लेख सम्बन्ध में है। जैनधर्म के आप्तों का वर्णन २८ वें परिच्छेद में करते हुए अपने से पूर्ववर्ती जैन-जैनेतर और कुछ समसामयिक किया गया है। ब्राह्मणधर्म के विषय में कहा गया है कि वे उक्त विद्वानों का भी उल्लेख किया है। समसामयिक विद्वानों में श्रीचन्द्र, आप्तजनों की समानता नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्त्रियों के पीछे प्रभाचन्द्र, श्रीकुमार का उल्लेख किया है। राजा भोज ने हरिसिंह कामातुर रहते हैं; मद्यसेवन करते हैं और इन्द्रियासक्त होते हैं। के नामों के साथ बच्छराज और प्रभु ईश्वर का भी उल्लेख किया २. धर्मपरीक्षा : इसमें भी ब्राह्मण धर्म पर आक्षेप किये है जिसने दुर्लभ प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। यह ग्रन्थ गये हैं और इससे अधिक आख्यानमूलक साक्ष्य की सहायता इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व का है। कवि के दोनों ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा में है। इसका रचना काल वि.सं. ११०० है।२१ ली गई है। ३. पंसंग्रह के सम्बन्ध में ऊपर उल्लेख हो चका है। (१३) प्रभाचन्द्र :-ये माणिक्यनदी के विद्याशिष्यों में प्रमख रहे हैं। ये उनके परीक्षामुख नामक सूत्रग्रंथ के कुशल टीकाकार ४. उपासकाचार ; ५. आराधनासामायिकपाठ भी हैं और दर्शनसाहित्य के अतिरिक्त वे सिद्धान्त के भी विद्वान ६. भावनाद्वात्रिंशतिका, ७. योगसार (प्राकृत)आदि रचनायें थे। आचार्य प्रभाचन्द्र ने धारा नगरी में रहते हुए केवल दर्शन अमितगति द्वारा लिखी गईं। इसके अतिरिक्त उनकी निम्नलिखित शास्त्र का ही अध्ययन नहीं किया, प्रत्युत्त धाराधिप भोज से रचनाएं आज उपलब्ध नहीं है:- १. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २. चन्द्रप्रज्ञप्ति प्रतिष्ठा पाकर अपनी विद्वत्ता का विकास भी किया। साथ ही ३. सार्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्ति और ४. व्याख्याप्रज्ञप्ति । विशाल दार्शनिक ग्रन्थों के निर्माण के साथ अनेक ग्रन्थों की अमितगति बहुमुखी प्रतिभा के विद्वान थे। जैनधर्म के रचना की।२२ इनके द्वारा रचित ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैअतिरिक्त संस्कृत के क्षेत्र में भी उनका ऊँचा स्थान माना जाता १. प्रमेयकमलमार्तण्ड - यह दर्शनग्रन्थ है जो माणिक्य है। वि.सं. ९५३ में माथुरों के गुरु रामसेन ने काष्ठा संघ की एक नन्दी के परीक्षामुख ग्रन्थ की टीका है। यह ग्रन्थ राजा भोज के शाखा मथुरा में माथुर-संघ का निर्माण किया था। अमित-गति समय रचा गया था। २३ इसी माथुर संघ का निर्माण किया था। अमितगति इसी माथुर संघ के अनुयायी थे। अमितगति की गुरु-परम्परा-वीरसेन २. न्यायकुमुदचन्द्र - यह जैनन्याय का प्रामाणिक ग्रन्थ . माना जाता है।२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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